Tuesday, October 4, 2016

स्मृति - पत्र

उम्र भर की धूप को,

कैद सीने में किए।

कुछ अधूरी ख़्वाहिशों,
के फूल हाथ में लिए -
देखता हूँ मैं खड़ा -
ठंढ की इस रात को,
इस भींगती बरसात को।
याद आता है मुझे -
उस दिन भी तो, बरसात थी,
जब हृदय को रोक कर,
सम्पूर्ण शक्ति झोंक कर,
तुमने मुझसे कहा था -
फिर तुम्हारी आँख से,
मैं, नीर बनकर बहा था।
और हृदय की बेबसी,
अवरुद्ध कंठ में फंसी,
चुपचाप सिसकती रही,
निस्तब्धता की भीड़ में,
और हम, बंधे रहे,
कर्तव्य की जंजीर में।
कहाँ फिर कुछ शेष था -
सिक्त आँचल में तुम्हारे,
प्रेम का अवशेष था -
 
फिर कभी न, हम मिले,
जिस्म के, ज़र्रों तले,
रिसती रही, खामोशियाँ,
बनकर युगों की वेदना,
और मैं विक्षिप्त - सा,
संज्ञा - शून्य रिक्त सा,
दायित्व और अधिकार के,
द्वंद्व में लिपटा रहा।
इस जगत के सैकड़ों,
सम्बन्ध में सिमटा रहा।
मगर अभागा, यह हृदय,
तुम्हें नहीं भुला सका ।
न किसी का, हो सका ,
          न किसी को, पा सका ............

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