Tuesday, November 13, 2012

कैसी हो तुम

नहीं आ पाऊँगा घर -
इस दिवाली भी,
क्योंकि हमने तो शपथ ली है,
इस देश को बचाने की,
जो पहले ही बँट चुका है,
न - जाने कितने मुखड़ों में,
धर्म - जाति, नक्सलवाद,
और सांप्रदायिक, टूकड़ों में।

इन बीहड़, सुनसान जंगलों में,
जहाँ जिस्म, रोटी के लिए, फड़फड़ाती है।
जहाँ ठिठुरते बच्चे को देख, आँख भर आती है।
वहाँ हम, बंदूक की नोक पर,
उन्हें जीने का, सलीका सिखाते हैं।
फिर गोलियों, और बारूद के धमाकों से,
अपनी एकता पर, मरहम लगाते हैं।

डरता नहीं, मैं मौत से -
मगर टीस उठती है कि
मैं तो सैनिक हूँ -
ऐसे ही लड़ता जाऊँगा।
रोज ही मरता जाऊँगा।
मगर क्या मेरी मौत,
बदल पाएगी, हालात को,
कश्मीर से, कन्याकुमारी तक,
आक्रोशित, जज़्बात को।

जब ऊब जाता हूँ, इस थकान से,
अपने अंदर के, इंसान से।
ऐसे में आती है, घर की याद,
कैसे हैं, माँ और बाबूजी,
कैसा है, अपनी आँखों का तारा,
अब तो वह, चार सालों का हो गया होगा।
जरूर, तुम्हारे ऊपर गया होगा।
कैसे बताऊँ ?
कितना याद, आती हो तुम,
बम-धमाकों में, मगर,
प्यार, हो जाता गुम।
बस यही, पूछ पाऊँगा -
कैसी हो तुम ?

Sunday, November 11, 2012

आम आदमी

कभी-कभी सोचता हूँ-
उठा लूँ आसमान, अपने सिर पर,
बदल डालूँ, इस समाज को,
झूठे, रस्मों-रिवाज को।
लगा दूँ, अपना जीवन,
गरीबों की, सेवा के लिए,
किसी प्रताड़ित, बेवा के लिए।
झोंक दूँ, खुद को-
आक्रोश की, भट्ठी में,
बाँध लूँ, इस दुनिया को,
अपनी इस, मुट्ठी में।

मगर यह आग-
मेरे अंदर ही, दब जाता है।
नसों और धमनियों में,
उबलता रक्त, जम जाता है।
हृदय का स्पंदन -
साँसों तक, पहुँच नहीं पाता।
और मैं विवश -
कभी-कुछ, कर नहीं पाता।
शायद इसलिए -
क्योंकि मैं एक आम आदमी हूँ ...........

Thursday, November 1, 2012

बेजुबां एहसास

हर रोज सोचता हूँ कि जिन बेचैनियों को रात की खामोशी में आँख की कोर से बहाता हूँ, जिस एहसास को न-जाने कब से मैंने किसी को बताया नहीं। अंदर-ही-अंदर सुलगता रहा। साँसों में एक अजीब- सी चुप्पी लिए हर एक लम्हें से लड़ता रहा अपने वजूद के लिए, अपनी कल्पना को एक सजीव रूप देने के लिए, क्योंकि मेरी रूह तक को भी, यह खबर हो चुकी है कि तुम्हारे साथ के अलावा मेरे इस भागती-दौड़ती जिंदगी का अस्तित्व ही नहीं, कोई मंजिल ही नहीं। मालूम नहीं क्यों और कहाँ जाने के लिए यह सरपट भागती जा रही है? न यह कभी मुझसे पुछती है मेरे जज़्बात और शायद इसे मेरी आरज़ू और ख्वाइश की कोई कदर ही न रही। क्या कहूँ मैं तुमसे अपने इस मौन मोहब्बत के बारे में। हर सुबह जब सूरज की किरने इस धरती को इन्द्र-धनुषी रंगों की एक आँचल पहना देती है, मैं भी उन्हीं किरणों के तेज को अनुभव करता हुआ, अपनी सारी शक्ति को एकत्र करता हूँ। फिर एक प्रण-सा लेता हूँ आज अपनी इस संकोच को मिटा दूंगा। एक-एक पल जो मैंने महसूस किया हैं, तुम्हारे लिए उसे,तुम्हें बता दूंगा। बता दूँगा कि जिंदगी के आँचल में जो खुशी मेरा राह देखती है, वह आँचल तुम्हारे पास है। आँखों में जो सपने सजते है, वहाँ अब तुम्हारी पलकों का डेरा है। मेरे हृदय की धड़कन अब जीने-मरने की इच्क्षा से बेखबर, तूम्हारे धड़कनों में अपनी सांस ढुढ़ती है। ये सूरज, चाँद, फूल, खुशबू, कुछ भी मेरा नहीं। मानों ये रोज मुझे इत्तिला करते हैं कि तुम्हारे बिना मेरे लिए इस खूबसूरती के मायने हीं कहाँ है? मगर, तुम्हारे करीब आते ही सारे एहसास, भावनाओं का ज्वार तुम्हारे चेहरे पर केन्द्रित हो जाता है। पाँव आगे बढ़ते ही नहीं मानो धरती ने इन्हें बांध लिया हो, जुबां खामोश और लब्ज हलफ के अंदर सिमटकर रह जाते हैं। सारी ऊर्जा निस्तेज हो जाती है। हतप्रभ-सा मैं इधर-उधर देखने लगता हूँ, क्योंकि मुझमें यह शक्ति भी नहीं बच पाती कि मैं ठीक से तुम्हें निहार सकूँ। सोचने लगता हूँ कि तुम्हारे भी नाम के आगे कहीं मेरा नाम इस जमाने ने जोड़ दिया तो दोस्तों की महफिल कहीं तुम्हें बदनाम न कर दे। एक खयाल यह भी आता है कि कहीं तुमने इन्कार कर दिया तो ! नहीं-नहीं मैं तो इस खयाल से भी कोसों दूर रहना चाहता हूँ।कम-से-कम आज एक सपना सजाता तो हूँ, ख्वाब में ही-सही, तुम्हें गले लगाता तो हूँ। काश ! तुम भी समझ पाती इन अधूरी दास्तां को, जो तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक तुम बेजुबां एहसास को पढ़ना सीख नहीं लेती। इसी आशा में एक शाम और ढलती है, जिंदगी मद्धिम ही-सही, मगर लौ के साथ पिघलती है। रात की तनहाइयाँ कभी-कभी शुकुन में बदलती है और फिर-से नयी सुबह इन्द्र-धनुषी रंगों में सज कर निकलती है।