नहीं आ पाऊँगा घर -
इस दिवाली भी,
क्योंकि हमने तो शपथ ली है,
इस देश को बचाने की,
जो पहले ही बँट चुका है,
न - जाने कितने मुखड़ों में,
धर्म - जाति, नक्सलवाद,
और सांप्रदायिक, टूकड़ों में।
इन बीहड़, सुनसान जंगलों में,
जहाँ जिस्म, रोटी के लिए, फड़फड़ाती है।
जहाँ ठिठुरते बच्चे को देख, आँख भर आती है।
वहाँ हम, बंदूक की नोक पर,
उन्हें जीने का, सलीका सिखाते हैं।
फिर गोलियों, और बारूद के धमाकों से,
अपनी एकता पर, मरहम लगाते हैं।
डरता नहीं, मैं मौत से -
मगर टीस उठती है कि
मैं तो सैनिक हूँ -
ऐसे ही लड़ता जाऊँगा।
रोज ही मरता जाऊँगा।
मगर क्या मेरी मौत,
बदल पाएगी, हालात को,
कश्मीर से, कन्याकुमारी तक,
आक्रोशित, जज़्बात को।
जब ऊब जाता हूँ, इस थकान से,
अपने अंदर के, इंसान से।
ऐसे में आती है, घर की याद,
कैसे हैं, माँ और बाबूजी,
कैसा है, अपनी आँखों का तारा,
अब तो वह, चार सालों का हो गया होगा।
जरूर, तुम्हारे ऊपर गया होगा।
कैसे बताऊँ ?
कितना याद, आती हो तुम,
बम-धमाकों में, मगर,
प्यार, हो जाता गुम।
बस यही, पूछ पाऊँगा -
कैसी हो तुम ?
इस दिवाली भी,
क्योंकि हमने तो शपथ ली है,
इस देश को बचाने की,
जो पहले ही बँट चुका है,
न - जाने कितने मुखड़ों में,
धर्म - जाति, नक्सलवाद,
और सांप्रदायिक, टूकड़ों में।
इन बीहड़, सुनसान जंगलों में,
जहाँ जिस्म, रोटी के लिए, फड़फड़ाती है।
जहाँ ठिठुरते बच्चे को देख, आँख भर आती है।
वहाँ हम, बंदूक की नोक पर,
उन्हें जीने का, सलीका सिखाते हैं।
फिर गोलियों, और बारूद के धमाकों से,
अपनी एकता पर, मरहम लगाते हैं।
डरता नहीं, मैं मौत से -
मगर टीस उठती है कि
मैं तो सैनिक हूँ -
ऐसे ही लड़ता जाऊँगा।
रोज ही मरता जाऊँगा।
मगर क्या मेरी मौत,
बदल पाएगी, हालात को,
कश्मीर से, कन्याकुमारी तक,
आक्रोशित, जज़्बात को।
जब ऊब जाता हूँ, इस थकान से,
अपने अंदर के, इंसान से।
ऐसे में आती है, घर की याद,
कैसे हैं, माँ और बाबूजी,
कैसा है, अपनी आँखों का तारा,
अब तो वह, चार सालों का हो गया होगा।
जरूर, तुम्हारे ऊपर गया होगा।
कैसे बताऊँ ?
कितना याद, आती हो तुम,
बम-धमाकों में, मगर,
प्यार, हो जाता गुम।
बस यही, पूछ पाऊँगा -
कैसी हो तुम ?