Wednesday, December 18, 2013

पत्थर यूग

ऐसा नहीं हैं कि ,
अब हम, लिपटते नहीं।
एक-दूसरे की बाँहों में,
आकर, सिमटते नहीं।

मगर, अब यह,
एक प्रक्रिया भर है,
जो चंद पलों में हीं,
गुजर जाती है।
फिर वही निस्तब्धता -
हम दोनों के बीच,
ठहर जाती है।

तुम्हारा खुला बदन,
वह रेशमी आगोश।
फिर भींगती थी रात,
और डूबते थे होश।
जिस्म अब भी वही है,
मगर यह, बहकता नहीं।
साँसों की सुगंध से,
अब यह, महकता नहीं।
मिलते हैं होंठ, मगर -
उन्हें, नमी नहीं मिलती।
बोसों की बारिश को,
जमीं नहीं मिलती।

शायद इन्हें भी खबर है कि
एक ही कमरे में,
एक ही बिस्तर पर,
अब हम, "हम" नहीं रहे।
रह गयी हो, केवल तुम,
या रह गया हूँ, केवल मैं ..............

Wednesday, June 19, 2013

विरोधाभास

करीब सुबह के दस बजे थे। एक सभ्य कुलीन महिला पुलिस स्टेशन पहुंची। तेज कदमों से वह इंस्पेक्टर की टेबल के सामने जाकर खड़ी हो गई।
“मैं केस दर्ज कराने आई हूँ।‘’ महिला की आँखों में एक अजब-सा आक्रोश था।
“जी कहिए।“ इंस्पेक्टर ने टेबल पर पड़ी फाइलों से अपनी नजर हटाते हुए कहा।
“मेरा बलात्कार किया गया है।“
उसके इन शब्दों को सुनकर इंस्पेक्टर गंभीर हो गया। हाल-फिलहाल की घटनाओं को देखते हुए आला अधिकारियों की तरफ से सख्त निर्देश था कि ऐसे किसी भी मामले पर तुरंत कारवाई की जाए। इसलिए उसने मामले की गंभीरता को समझते हुए रपट लिखना शुरू किया।
“यह वहशियाना हरकत किसकी है?”
“मेरे पति की।“
“जी। यह नहीं हो सकता।“ उसके कलम रुक गए।
“नहीं हो सकता। मैं पुछती हूँ क्यों नहीं हो सकता?“
“मेरा मतलब.... आप अपने पति की बात कर रही है?“ इंस्पेक्टर की आँखों में आश्चर्य था।
“जी हाँ।“
“देखिए। यह आपके घर का मामला है। मुझे नहीं लगता कि इसमें पुलिस की आवश्यकता है। आप अपने घर जाइये और शांत होकर अपने पति से बात कीजिये।
“तो क्या आप यह केस दर्ज नहीं करेंगे?” महिला की आँखों का क्रोध उबल पड़ा।
“मैंने ऐसा नहीं कहा। मगर यह आपके और आपके पति के बीच का व्यक्तिगत मामला है। आप दोनों इसे बेहतर ढंग से सुलझा सकते हैं।“ इंस्पेक्टर ने महिला को समझाने की कोशिश की।
“मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहती। मैं न्याय चाहती हूँ। इस समाज से और इस समाज के न्यायकर्ताओं से।“
मामले की संवेदनशीलता को भाँपते हुए इंस्पेक्टर ने महिला का केस दर्ज कर लिया और साथ में उसे बगल की केबिन में बैठने का अनुरोध किया। महिला चली गई। मगर इंस्पेक्टर को अब तक यह बात समझ में आ गई थी कि यह मामला पुलिस का नहीं, बल्कि मानवाधिकार आयोग का है। इसलिए उसने तुरंत उन्हें फोन लगाया और उन्हें इस मामले की सूचना दी। साथ ही उसने अपने कांस्टेबलों को महिला के पति को पुलिस स्टेशन में ले आने की आज्ञा दी।
जल्दी ही मौके पर मानवाधिकार आयोग की एक टीम पहुँच गई। जिसमें दो भद्र पुरुष थे और एक महिला थी। तीनों उसी केबिन में पहुंचे, जहाँ महिला को ठहराया गया था।
“तो आपका आरोप है कि आपके पति ने आपके साथ बलात्कार किया?“
“जी हाँ। यह रिपोर्ट मैं दर्ज करवा चुकी हूँ।“
“मगर यह तो नैतिक है।“
“अच्छा...तो अब इस समाज में बलात्कार भी नैतिक हो गया है।“
“मेरा मतलब..... पति-पत्नी आपस में यौन संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। इसे बलात्कार का नाम नहीं दिया जाता।“
“तो फिर आपकी दृष्टि में बलात्कार क्या है?”
“ऐसा कोई भी शारीरिक संबंध जो महिला की इच्छा के विरुद्ध बनाया गया हो।“
“यही तो मैं भी कह रही हूँ। उसने मेरे साथ जबरदस्ती की है।“
“मगर वह आपके पति हैं।“
“पति है तो.... क्या मेरा मन और शरीर अब उसकी इच्छाओं का गुलाम मात्र है? जिसे जब चाहे वह मसल दे। जब चाहे अपनी हवश की प्यास बुझाए।“
“आप गलत समझ रही हैं। हमारे समाज में यह एक धर्म है। इसे गुलामी का नाम देना उचित नहीं।“
“गुलामी नहीं तो और क्या है? वह मेरी इच्छा-अनिच्छा की परवाह किए बिना मेरी आत्मा को नोचता रहे और मैं नैतिकता के बोझ तले उसकी यौन तृष्णाओं को पूरा करनेवाली खिलौना मात्र बनी रहूँ। यह मेरा शरीर है। यह मेरी आत्मा हैं और सर्वप्रथम इसपर मेरा अधिकार है। मैं यदि ऐसा कोई संबंध नहीं बनाना चाहती तो यह कैसा धर्म है जिसमें मानवीय मूल्यों का कोई औचित्य ही नहीं।“
“आपकी शादी के कितने दिन हुए हैं?” इस बार टीम की महिला सदस्य ने पूछा।
“दो साल।“
“तो क्या आप अपने पति से प्रेम नहीं करती?”
“मैं इस तरह के संबंध बनाने में असहज थी। इसलिए शादी के पहले दिन ही मैंने उसे सारी बातें बताई थी। उसने भी मेरा पूरा खयाल रखा। इन दो सालों में कभी कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की। मुझे अपने प्यार पर पूरा भरोसा था। मैं खुद को उसके साथ सबसे ज्यादा सुखी और सुरक्षित महसूस करती थी। मगर कल रात उसने अपना वहशी रूप दिखा दिया। उसने मेरे साथ जबरदस्ती की।“
“उसे जबरदस्ती नहीं कहते।“ भद्र पुरुष बोले।
“तो फिर आपलोगों की नजर में जबरन संबंध क्या है?” महिला ने तीखे स्वर में प्रश्न किया।
“मेरा तात्पर्य है कि पति-पत्नी का संबंध सात्विक होता है और समाज में इसे जबरन संबंध की संज्ञा नहीं दी जाती। यह तो प्रेम का आधार होता है।“
“आप कहना चाहते हैं कि यह यौन उत्पीड़न ही इस प्रेम का आधार होता है, जहाँ पुरुष जब चाहे स्त्री की संवेदनाओं की हत्या करता है। वाह रे प्रेम! वह रे समाज! घिन आती है मुझे इस समाज पर और आप जैसे मानव मूल्यों के रक्षकों पर।“ महिला की आँखों से अश्रुधारा का सैलाब जो अब तक धैर्य और साहस के आँचल में बंधा था, वह टूट पड़ा।
“प्लीज आप रोइए मत। आपका साहस काबिलेतारीफ है। आप मजबूती से अपनी बात रख रहीं है। हम आपको न्याय दिलाने की पूरी कोशिश करेंगे। ऐसी स्थिति में भी, आपका ऐसा सहयोग सराहनीय है।“
“आप क्या न्याय दिलाएँगे? कभी आप नैतिकता की बात करते है तो कभी इसे प्रेम का आधार बताते हैं। यदि आपमें दृढ़ इच्छाशक्ति होती तो, आप उसे गिरफ्तार करते। उसे सजा मिलती ताकि शहर में घूम रहे सभी आदम जानवरों के जेहन काँप उठते। फिर ऐसी हरकत करने की कोई जुर्रत भी नहीं करता।“
टीम ने महिला से पूछताछ बंद कर दिया। कुछ देर बाद उसके पति से पूछताछ शुरू हुई।
“आपकी पत्नी ने आपपर आरोप लगाया है। क्या आपको इसकी खबर है?”
“जी हाँ।“
“क्या आपको अपना अपराध स्वीकार है?”
“मैंने कोई अपराध नहीं किया।“
“मगर किसी भी स्त्री से उसकी इच्छा के विरुद्ध बनाया गया यौन संबंध बलात्कार और यह एक जघन्य अपराध है।“
“यह शादी मैंने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए तो नहीं की थी। इतने दिनों तक मैंने उसकी भावनाओं का आदर किया लेकिन हर पुरुष अपनी स्त्री से यह अपेक्षा करता है कि वह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप में उसकी सहधर्मी बने। क्या आप अपनी पत्नी से यह अपेक्षा नहीं करते?”
“फिलहाल यह केस आपकी पत्नी ने दर्ज किया है। इसीलिए हम यहाँ आए हैं।“
“पुरुष तो आजीवन ही अपराध बोझ से दबा रहता है। मैं पूछता हूँ – इन बीते दिनों में यदि मैंने किसी और स्त्री के साथ संबंध बनाया होता तो भी मैं अपराधी घोषित किया जाता। तब आप कहते मैंने अपना पति धर्म नहीं निभाया। गनीमत तो यह है कि यदि वह, यह केस दर्ज करती कि मैंने उसके साथ इन बीते वर्षो में कोई संबंध नहीं बनाया तो भी आपकी दृष्टि में मैं ही अपराधी होता क्योंकि मैंने स्त्री की यौन इच्छाओं का हनन किया। हर पहलू में पुरुष ही दोषी होता है।“
“हम आपकी बातों से सहमत हैं मगर......”
“मगर क्या? न तो आप पूर्णतः सहमत दिखते हैं न ही असहमत।“
“क्या आप दोनों के बीच यह तनाव काफी दिनों से था? क्या आप एक- दूसरे को प्यार नहीं करते?”
“कौन-सा प्यार? मुझे समझ में नहीं आता। यहाँ तो न जाने कितने प्यार हैं – पिता से प्यार, माँ से प्यार, बहन से प्यार, बेटे से प्यार, आध्यात्मिक प्यार और भी न जाने कितने? अब वह मुझसे कौन-सा प्यार करती थी या करती है? यह मैं कभी समझ नहीं पाया।“
खैर पूछताछ समाप्त हुयी। अब बारी फैसले की थी। टीम ने आपस में विचार-विमर्श किया। टीम के एक पुरुष सदस्य बोले – यह मामला न तो बलात्कार का है, न ही पति-पत्नी के बीच विवादित सम्बन्धों का। यह स्त्री-पुरुष के विचारों के विरोधाभास का है, जो सदियों से, या यूं कहे सृष्टि के आदिकाल से चली आ रही है। यह केवल मानव तक सीमित नहीं। यह तो हर जीव में व्याप्त है। यह विरोधाभास प्राकृतिक है। मगर हमें फैसला तो लेना ही होगा। अन्य सदस्यों ने भी उनके विचारों में हामी भरी।
एक लंबी बहस के बाद फैसला लिया गया। फैसला संवैधानिक था, जो समाज की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर लिया गया। मगर मैं वह फैसला सुना नहीं सकता। दोषी कौन था और कितना? यह फैसला मैं आप सभी पाठकों पर छोडता हूँ।

Thursday, May 30, 2013

लव...ब्रेकअप.....जिंदगी.......पेज - 3

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 जैसे कि अमूमन मैंने फिल्मों और कहानियों में इंजीनियरिंग कॉलेजों के बारे में पढ़ा था। रोमांस और रिलेशनशिप में डूबे यंगस्टर्स। मगर मुझे नहीं लगता कि कहानियों में दिखाया गया यह दृश्य इतना वास्तविक होता होगा, क्योंकि हमारे कॉलेज में तो ऐसे किस्से न के बराबर थे। यदि कुछ लोग रिलेशनशिप में बंधे भी थे तो मुझे नहीं लगता कि उन्होने उसे आखिरी अंजाम यानि सेक्सुअल रिलेशन तक पहुंचाया होगा। मैं यह नहीं मानता कि सभी रिलेशनशिप का मकसद यही होता है लेकिन ह्यूमन स्वभाव को समझने पर यह बात बिलकुल स्पष्ट हो चुकी है कि पुरुष सेक्स के लिए प्यार करते हैं जबकि महिलाएँ प्यार के लिए सेक्स करती हैं। कहानियों जैसा यहाँ कुछ भी नहीं था। लड़कियां यहाँ किसी साधक से कम नहीं होती थी, जो ऐसे माहौल में भी खुद को इतनी नियंत्रित रखती थी। वे अपना कौमार्य इस तरह आसानी-से किसी पर न्योछावर नहीं किया करती थी। लड़के अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति  पॉर्न वीडियों या ब्लू फिल्में देखकर पूरी करते थे। वास्तविक जिंदगी में उनके लिए यह किसी ख्वाब से कम नहीं था। तभी तो ऐसी फिल्मों को देखने कि लिए हॉस्टल में पूरी भीड़ उमड़ पड़ती थी। जहाँ तक लड़कियों का सवाल है, उन्होने भी इस समस्या के समाधान का कोई-न-कोई रास्ता जरूर ढूंढ लिया होगा। क्योंकि कोई दिमाग को नियंत्रित कर भी ले, परंतु शरीर की भी तो एक आवश्यकता होती है। प्रकृतिक मनोदशा और बढ़ते हॉरमोन के एहसास से बचना इतना आसान कहाँ। कुछ भी कहें मगर, लड़को के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करना किसी यातना से कम नहीं होता था।  ऐसे वातावरण में आप किसी लड़की से मिलें, उसके साथ कॉफी पिएँ और किसी को इसकी खबर न हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। शाम होते होते यह खबर आग की तरह फैल गई। पूरे हॉस्टल में चर्चा का विषय बना रहा। न – जाने मुझे कितने इंटरविऊ फेश करने पड़े! जो बात उन्हें सबसे ज्यादा खाए जा रही थी कि मैं कैसे किसी लड़की के साथ हो सकता हूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे जो श्रुति पर फिदा थे, उन्होने तो मुझे अपना प्रतिद्वंदी समझ लिया। उन्होने अपनी उस रेस में मुझे भी शामिल कर लिया, जिसका हिस्सा न – तो मैं कभी था और न ही कभी बनना चाहता था।
हालांकि मैं नियंत्रित हूँ, स्वभाव से संजीदा हूँ मगर कहते हैं न कि पुरुष कितने भी नियंत्रित और संयमी क्यों न हो? उनमें एक उतावलापन और उच्छृखलता सदैव विद्यमान होती है। चाहे उन पर  कितने भी संस्कारों और सभ्यताओं का बोझ क्यों न लदा हो, वे अपनी  नैसर्गिक मनोस्थिति को बदल नहीं कर सकते। दिन भर की उस रहस्मयी और विस्मयपूर्ण घटनाओं को अपने मस्तिष्क की स्नायुतंत्रों में समेटता हुआ जब मैं अपने बिस्तर पर पहुँचा, तो मेरे असमंजस की इस घड़ी में एक नयी कड़ी मानो मेरा इंतजार कर रही थी। मेरे मोबाइल में एक अननोन नंबर से एक मेसेज दिख रहा था। उत्सुकता और कौतूहल से मैंने मेसेज पढ़ा। मेरी आँखों में विस्मय, स्तब्धता के साथ- साथ हल्की खुशी के मंजर लरजने लगे। क्या करता मेसेज ही कुछ ऐसा था, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था –
“ loved the coffee and time spent with you……………………………………… Shruti.”
मैंने उस मेसेज को एक बार पढ़ा दो बार पढ़ा फिर पढ़ता ही गया। एक – एक अक्षर को मैंने महसूस करने की कोशिश की। उनमें छुपे मनोभावों को अपनी कल्पना की शिल्पकला से एक मूर्ति रूप देने लगा। पंक्तियों के अंत में और उसके नाम से पहले जो बिन्दु चिन्ह थे, उनकी भी मैंने पूरी –पूरी गिनती की। वे मुझे वास्तविक धरातल और स्वप्नों की इंद्रधनुषी कतारों के बीच, सीढी की तरह प्रतीत हुए। क्षण भर में वे, मुझे वहाँ ले गए, जहाँ आप भौतिक परिवेश से ऊपर उठ जाते है। आपके और संसार के बीच का तादात्म्य टूट जाता है। क्या नैतिक है और क्या व्यवहारिक? इन सभी प्रश्नों का कोई भय नहीं होता। सामाजिक ज्ञान के सभी चक्षु बंद हो जाते हैं। मन की प्रफुल्लता आपको अपने अतीत के बोध और भविष्य के पश्चाताप से मुक्त कर देती है। आप सिर्फ और सिर्फ वर्तमान की आगोश में होते है और फिर आप स्वय को हृदय की अनुभूतियों में विलीन कर लेते हैं।
कुछ समय तक इस असीम एहसास को खुद में समेटने के बाद मैंने प्रतिउत्तर में मेसेज लिखने की कोशिश की। अनगिनत शब्द और अनगिनत भाव। मोबाइल की स्क्रीन पर मैंने अंकित किए। मगर सब बेकार। ऐसा लग रहा था मानो वे सभी अपने-आप में अधूरे थे या उन पाँच शब्दों की बराबरी करने का साहस उनमें नहीं था। मेरा सारा साहित्यिक ज्ञान भी मुझे प्रेरित नहीं कर पाया और अंत में काफी जद्दोजहद के बाद मैं केवल इतना ही लिख पाया –
“ Me too………………………..’’
जब तक आप स्वप्नों के अलंकृत महल में होते हैं, आप वास्तविक परिदृश्यों को देख नहीं पाते। मगर मस्तिष्क निरंतर उसी अर्धचेतन अवस्था में तो नहीं रह सकता। वह पुनः अपनी चेतना में लौट आता है। वापस लौटते ही उसने मुझे घटना के दूसरे पहलू से अवगत कराया। यह अक्सर होता था कि फ्रेंड्स किसी का मज़ाक उड़ाने के लिए किसी लड़की के नाम से उसे मेसेज कर देते थे। यदि वह रिप्लाई करता था, तो बाद में उसकी खूब खिंचाई होती थी। मेरे साथ पहले कभी ऐसा हुआ नहीं था। मगर आज दिन भर जो हवा चली थी, किसी ने मुझे भी आजमाने की कोशिश की हो। यह भी तो हो सकता था। कुछ देर पहले दिल प्रेम और उल्लास के सागर में गोते लगा रहा था, मगर हकीकत की परछाई का एहसास होते ही सारा प्रेम काफ़ुर हो गया। मैंने तुरंत फेसबुक लॉग इन किया और श्रुति के प्रोफ़ाइल को चेक करने लगा। मगर आश्चर्य, वहाँ तो कोई भी मोबाइल नंबर नहीं था। इसका मतलब था मोहित ने मुझसे झूठ बोला था कि उसने फेसबुक से श्रुति का नम्बर लिया था। मैंने उस दिन डॉयल किए गए नम्बर को याद करने की बहुत कोशिश की मगर सब बेकार। उस दिन मैंने ध्यान ही कहाँ दिया था। मुझे विश्वास हो गया यह हमारे ही दोस्तों की चाल थी। मेसेज भेजने की। मैंने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया। क्योंकि पता नहीं अब वे लोग क्या- क्या लिखकर भेजते!
अगले दिन शनिवार था। कॉलेज ऑफ होता था। ज़्यादातर लोग मूवीज देखने निकल जाते थे। जो कहीं नहीं जा पाते थे, वे बस हॉस्टल के कमरों में चक्कर काटते नजर आते थे। मेस में जाने के अलावा बाकी समय कार्ड खेलने बीत जाता। शाम में कुछ लोग क्रिकेट भी खेलते लेकिन पूरा दिन बोरिंग ही गुजरता। और दिन तो पाँच बजे तक क्लास होती थी। न चाहते हुए भी सारा समय निकालना पड़ता था। बंक करने पर मजा ज्यादा आता। मगर शनिवार और रविवार यूं ही बेकार गुजरते थे। कुछ खास करने के लिए होता भी नहीं था। खास से याद आया- बी॰ टेक॰ में एडमिशन लेते समय आइंस्टीन या न्यूटन बनने का या फिर कुछ नया इन्वेण्ट करने का, हमने कोई संकल्प तो लिया नहीं था, जो छुट्टी वाले दिन कुछ नया ढूँढने में लग जाते। हाँ कुछ लोग नया ढूंढते थे, जैसे कोई नयी "मिस कॉलेज" जो अभी तक नजरों से ओझल रही हो। उसके फिगर, लुक्स और अदाओं पर शोध किया जाता। या फिर उसके लिए सभी अपनी- अपनी बीड डालते कि वो अब मेरी है, मानो उसकी नीलामी हो रही हो। यह चलन सामान्य था। जैसे वर्षों से यही होता आया हो। मुझे तो लगता है, यह बात सच भी है। जबसे सृष्टि बनी है, पुरुष, स्त्री को समझने की ही कोशिश कर रहे हैं। मगर इस वैज्ञानिक युग में पहुँचकर भी उन्हें सफलता नहीं मिली है।
मैं उस दिन बाहर नहीं निकला। कारण स्पष्ट था – पता नहीं किससे सामना हो जाए, फिर मेसेज वाली बात पर मुझे चारों तरफ से घेर लें। डिनर के बाद अपने बेड पर औंधे मूंह लेट गया। फिर याद आया। मेटेरियल साइंस की प्रैक्टिकल फाईल बनानी थी। सोमवार तक सबमिट करनी थी। मेहता सर ने सभी के मेल आईडी पर मैनुअल भेज दी थी। मैं मेल चेक करने लगा। एक –एक एक्सपेरिमेंट दस-दस पेज के थे। बी॰ टेक॰ में फाईल ने तो खासा परेशान किया था। इतनी तो स्कूल लाईफ में भी प्रोब्लेम नहीं हुई थी। वहाँ हम सोचते थे कि अब हम बड़े हो गए। कॉलेज में तो फ़्रीडम होगी। कोई हमसे कुछ नहीं कह पाएगा। मगर इसके विपरीत यहाँ तो हमें नर्सरी के बच्चों जैसा बर्ताव किया जाता है। हर बात में डिग्री का डर दिखाते हैं। मैनुअल को डाऊनलोड कर लिया। एक बार जब आप नेट यूज करते हैं, और फेसबुक पर लॉग इन न करें, यह असंभव जैसा ही है। मगर कुछ खास था नहीं। एक फ्रेंड रिक्वेस्ट आई हुई थी। मेरे किसी जूनियर की थी। चूंकि मैं नवोदय विद्यालय से पास आउट हूँ। इसलिए जो बच्चे भी नवोदय से जुड़े थे, वे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज देते थे और कुछ नहीं तो भावनात्मक लगाव के कारण मुझे, ऐक्सेप्ट करना पड़ता था। इसके अलावा एक नोटिफिकेशन था। समझ गया किसी ने मुझे टैग किया होगा अपने किसी ईमेज की लाईक्स बढ़ाने के लिए। फेसबुक पर यही चीजें कॉमन हैं, कहने के लिए तो यह एक सोशल नेटवर्किंग साईट है, मगर सोशल जैसा यहाँ कुछ भी नहीं होता। अधिकांशतः केवल पिक्स देखने को मिलते थे। वो भी नए – नए पोज में। जो पिक्स डालते थे, बेचारे दिन भर इसी में लगे रहते कि उसपर कितने लाईक्स आये। कुछ अच्छे खयाल और उपदेशात्मक बातें भी दिखती थी, जिनपर हजारों लाईक्स और कमेन्ट होते थे, मगर मुझे लगता है कि लाईक करने के साथ ही सारी संवेदना खत्म हो जाती थी। उसे जीवन में उतारने का समय कौन निकालें? फिर भी, फेसबुक मेरे लिए बेहतर भी साबित हुआ था। ऐसे कितने ही पुराने क्लासमेट और फ्रेंड्स जो समय की रफ्तार में कहीं पीछे छुट गए थे, कम-से कम, अब उनसे अंतर्जाल के ही माध्यम से मुलाक़ात तो होती थी। अनमने ढंग से मैं अपने होम पेज को ऊपर की तरफ स्क्रॉल कर रहा था, तभी श्रुति का मेसेज आया –
“ Hi”
अँग्रेजी का यह “हाय” शब्द भी बड़ा अजीब है। कितनी उत्कंठाओं और मनोभावों को रहस्यमयी रूप से अपने अंदर समेटे हुए। सामने वाला व्यक्ति आपसे क्या कहना चाहता है, यह समझना मुश्किल है। मुझे तो यही समझ में आया है कि प्रतिउत्तर में आप भी उसी शब्द को रिप्लाई कर देते हैं, तो इसका मतलब कि सामने वाले की मनोस्थिति को आपने समझ लिया है। विचारों में मग्न होते हुए भी मैंने वही शब्द लिखा-  “ Hi"
हालांकि मुझे इसका कोई अनुमान नहीं था कि श्रुति की इस औपचारिक शब्द में कौन – से मनोभाव छिपे थे?
“ Looking busy.”
मेरे रिप्लाई में की गई देरी को उसने कुछ ऐसा ही समझा।
“ नहीं। ऐसी बात नहीं है।''
“ कल मैंने तुम्हें good night wish किया था। but you didn’t reply……..?” 
 मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैंने अपने मोबाइल को चेक किया। श्रुति ने मेसेज कर रखा था। चूंकि मैंने मोबाइल ऑफ कर दिया था और सुबह से मैंने, न ही कोई मेसेज पढ़ा था। इसलिए मुझे पता नहीं चला। यानि कल का मेसेज श्रुति ने ही भेजा था। इस अनुभूति ने कुछ देर के लिए मुझे विस्मित कर दिया।
" मेरा मोबाइल ऑफ हो गया था। इसलिए मैं पढ़ नहीं पाया। " उलझती हुई चीजों को मैंने संभालने की कोशिश की।
" इट्स ओके।"
उसके इन शब्दों से मुझे तसल्ली मिली। मगर इस 'ओके' शब्द की भी एक दुविधा है कि वार्तालाप की निरंतरता में यह शब्द अचानक से विराम लगा देता है। फिर वार्तालाप को कैसे आगे बढ़ाया जाएँ। इसकी भी समस्या खड़ी हो जाती है। यूं कहे तो फिर से एक नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है।
Continued................

Wednesday, April 3, 2013

लव....ब्रेकअप......जिंदगी..... पेज- 2

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जैसे-जैसे हम कैंटीन की ओर बढ़ते गए,मेरा दिल बैठता गया। हजारों अच्छे-बुरे खयाल एक साथ मस्तिष्क में उभरने लगे। ‘कौन होगी’से ज्यादा परेशान करने वाली बात थी कि वह कैसी होगी? क्योंकि किसी भी कॉलेज में 90 प्रतिशत लड़कियाँ ऐसी होती है, जिन्हें लड़के देखते तो हैं, मगर सभ्य नजरों से। निगाह में एक आदर होता है। उन्हें देखकर किसी का दिल धड़कनों पर दस्तक नहीं देता। ऐसी लड़कियाँ स्वय को रोज निखारती है। नए-नए मेकअप में नजर आती हैं। मगर कोई सीटियाँ नहीं बजाता। फैशनेबल ड्रेस पहने जब ये सभी कैंपस में दिखती हैं तो ऐसा लगता है मानो ब्रांडेड शराब की बोतल को पानी से भर दिया गया हो। जो चढ़े हुए नशे को भी उतार दे। उनमें कोई आकर्षण नहीं होता। हालांकि मैं सच्चे प्यार में विश्वास रखता हूँ। मेरे अनुसार किसी की चेहरे की खूबसूरती पर लट्टू हो जाना। यह कभी प्यार हो ही नहीं सकता। यह तो केवल इन्फैचुएशन मात्र होता है, जो दो-चार महीनों में समाप्त हो जाता है। फिर लोग नए चेहरे की तलाश में जुट जाते हैं। पुरानी रिलेशनशिप एक बोझ की तरह और गले में फाँसी के फंदे की तरह झूलती दिखाई देती है। जिससे भागना भी मुश्किल और झूलना भी मुश्किल। कॉलेज में उस टाईप की लड़कियों से जिनका भी नाम जुड़ जाता था, उनकी स्थिति उस बकरे की तरह हो जाती थी, जिसे जबरन बलि देने के लिए चढ़ा दिया जाता है। जबकि उस निरीह का कोई अपराध नहीं होता। कुछ सीनियर्स और क्लासमेट को इस मानसिक पीड़ा को झेलते हुए देखा है। कितनी आत्मग्लानि से भरा और क्षोभपूर्ण दृश्य होता है उनके लिए यह। इन सभी बातों की कल्पना मात्र से मेरा पूरा बदन सिहर उठा। यदि ऐसी कोई लड़की कैंटीन पर मिली तो ! कॉलेज में दिन बिताना भी मुश्किल हो जाएगा। 
हॉस्टल के कॉरीडोर से निकलकर जैसे ही हमने एकेडमिक ब्लॉक को पार किया। जान-में जान आई। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। कैंटीन के पास कोई भी लड़की नहीं थी।
‘मैंने कहा था न ! अभी यहाँ कोई लड्की नहीं होगी।‘ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
‘हाँ यार ! सात से ज्यादा समय हो गया। हमने आने में देर कर दी।‘ मोहित निराश होते हुए बोला। उसके चेहरे से उसकी असफलता स्पष्ट झलक रही थी। मुझे वह ऐसा लगा जैसे उसे किसी युद्ध में बहुत बड़ी हार का सामना करना पड़ा हो और उसके सारे साथी भी मारे गए हो। खैर मेरे लिए तो यह समय जीत की गर्व से झूमने का था।  हाँ यह अलग बात थी कि इस जीत में मुझसे ज्यादा मेरी किस्मत का योगदान था। हम सभी वापस हॉस्टल की ओर चल पड़े।
‘यदि कोई लड़की होती, तो क्या सचमुच प्रोपोज कर देते?’ वैभव मेरी तरफ देखते हुए अचरज भरे स्वर में बोला। मुझे उसके स्वर में अचरज से ज्यादा उत्सुकता दिखाई दी।
‘तुम्हें क्या लगता है? मैं सीरियस था।‘
‘मगर फिर भी ! मेरा मतलब तुम! किसी को प्रोपोज कर दो।‘ दिनेश भी बोल पड़ा।
‘मैंने जबान दी थी। तुम सभी को पता है। मैं कुछ भी कर सकता हूँ वादा पूरा करने के लिए।‘ मैंने उग्र होते हुए कहा। अधिकांशतः मैं अपने वादे पूरी करता था। मगर जबान देने वाली बात, मैंने कुछ ज्यादा ही फेंक दिया। और जैसा कि अक्सर होता है जब आप खुद को सर्वश्रेष्ट साबित करने में लगे होते है, तभी किस्मत आपके साथ एक ऐसा चाल चलती है कि आप चारों खाने चित्त हो जाते है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। अभी हम दस कदम ही आगे बढे थे कि दिनेश बोल पड़ा –
‘That’s your target. हजारों दिलों की धड़कन।‘ इतना कहते हुए उसने मुझे पीछे मोड लिया।
मैं स्तब्ध था। It was Shruti. कॉलेज के हर दूसरे लड़के की अधूरी ख्वाइश। दूसरा इसलिए क्योंकि कुछ ऐसे भी होते है, जो चाँद को दूर से देख भर संतोष कर लेते हैं और अपनी ख्वाइशों पर लगाम लगा लेते हैं। मैंने सुना भी है। असमर्थ व्यक्ति को सबसे ज्यादा संतोष होता है। वह नीले सूट में थी। बालों में एक छोटा-सा क्लिप। जो मुझे नहीं लगता कि बालों को संभालने के लिए था। कंधे से लटकता दुपट्टा हवा में तैर रहा था और धरती को चूम रहा था। मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि लड़कियों के दुपट्टे इतने बड़े क्यों होते हैं? जहां जाती हैं, अपने साथ पूरे फर्श को भी समेटती जाती हैं। इससे पहले भी मैंने उसे हजारों बार देखा था। क्लास में, कॉरीडोर में, कैंपस में। मगर आज तक मैंने कभी उसे नोटिस नहीं किया था। मगर आज चाहकर भी उसे इग्नोर नहीं कर सकता था।
‘क्या हॉट आईटम मिली है प्रोपोज करने के लिए? आगे का फासला तुम्हें अकेले ही तय करना पड़ेगा।’ मोहित मेरे कंधे पर हाथ रखकर, लगभग उछलते हुए बोला। उसने मुझे आगे की ओर धक्का दे दिया।
एक बार मैंने पूरी स्थिति का जायजा लिया। आस-पास कितने लोग हैं? मुझे कोई नहीं दिखा। मेरा मस्तिष्क शिथिल हो चुका था। इसलिए आंखे भी धोखा देती प्रतीत हो रही थी। एक बार फिर मैंने चारों तरफ दृष्टि घुमाई। पार्क में कुछ लड़के बैठे नजर आए। शायद एम॰ टेक॰ के थे। तभी मैं उन्हें पहचान नहीं पाया था। कुछ ही दूरी पर एक कुत्ता क्रिकेट पिच की बगल की घास पर लेटा था। बिल्कूल निस्पंद। मानो किसी समाधि में लीन हो। मुझे लगा कि वह अपने किसी पुराने साथी को याद कर रहा था। कौन सा साथी? यह बताना मुश्किल था। क्योंकि उनके एक-दो साथी तो होते नहीं। श्रुति अभी-भी कैंटीन की खिड़की पर जमी थी। चूंकि मैं दूसरी तरफ से आ रहा था। इसलिए श्रुति मुझे देख नहीं सकती थी। ऐसे भी, मुझे वह कैंटीन वाले के साथ कुछ ज्यादा ही व्यस्त नजर आई। अभी मुझे श्रुति पर इतना गुस्सा आ रहा था कि क्या बताऊँ? इतनी रात को कैंटीन आने की क्या जरूरत पड़ गई?और वह भी अकेले। ऐसे ही लड़कियां नियम-कानुन ताक पर रखकर खुद को सशक्त साबित करने में लगी रहती है। और जब कोई बलात्कार या छेड़-छाड़ जैसी घटना हो जाती है तो बेकार का बवंडर खड़ा कर देती हैं। मैं पूछता हूँ कि ये उकसाती ही क्यों हैं? और अगर उकसाती है तो फिर चीख-पुकार क्यों मचाती हैं? पुरुष प्रधान समाज की छाया मुझपर हावी हो गई थी। मेरे और श्रुति के बीच मुश्किल से बीस फीट ( ज्यादा या कम भी हो सकता है क्योंकि मेरा पूर्वानुमान बहुत ही कमजोर है) का फासला रह गया होगा। तभी मुझे बगल की दीवार के पास से एक आवाज सुनाई दी।
‘हरी अप श्रुति !’
‘यस मैम।‘ श्रुति हड़बड़ाते हुए बोली।
मैम ! श्रुति के इस उत्तर से मैं ठिठक गया। पाँव जहां थे, वहीं जम गए। हमारे अलावा यहाँ कोई मैम भी हैं। और मैं इसे प्रोपोज करने के लिए आया हूँ। मैं बिल्कुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। आगे बढ़ूँ या पीछे लौट चलूँ। मगर कुछ भी न कर पाया। शायद मस्तिष्क और पैरों के बीच का तादात्म्य टूट गया था या पैर अपनी मनमानी पर उतर आए थे। इसी उधेड्बुन में मैं फंसा ही था कि श्रुति दौड़ती हुई गर्ल्स हॉस्टल की ओर चली गई। उसके बाल हवा में तैर रहे थी और दुपट्टा आसमान को अपनी बाँहों में लिए था। मैं उसे तब तक देखता रहा, जब तक कि वह मेरी आँखों से ओझल न हो गई।
करीब नौ बजे हमारा डिनर होता था। डिनर के बाद मैं अपने कमरे में लेटा था। तभी मुझे भगदड़ सुनाई दी। अभी मैं कुछ सोच पाता कि मोहित और दिनेश कमरे में आ घुसे।
‘हमारी शर्त अभी पूरी नहीं हुई।‘ मोहित मेरी बगल में आकर बैठते हुए बोला।
‘तुम्हारी शर्त के चक्कर में मैं रस्टीकेट या सस्पेंड हो गया होता। अभी अगर हॉस्टल वार्डेन ने मुझे वहाँ प्रोपोज करते हुए देख लिया होता तो ! मैं गुस्से से बोला।
‘ मगर शर्त तो तुमने खुद तय किया था।‘ कोई हम तुम्हें पकड़कर थोड़े ही ले गए थे।‘ मोहित मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोला।
‘ अब कोई शर्त नहीं! पहले ही काफी समय तुम्हारे फालतू शर्त में खराब किया।‘ मैंने उसका हाथ झटकते हुए कहा।
‘तो हम क्या समझे? You are over.’
‘ऐसा मैंने कब कहा?'
‘Then do it now. हमने फेसबूक से उसका न॰ निकाल लिया है। तुम्हें कॉल पर ही उसे प्रोपोज करना पड़ेगा।‘ मोहित ने अपनी मोबाइल की ओर इशारा करते हुए कहा।
यह फेसबूक भी इन्हीं बकवास चीजों के लिए बनी है। आप चाहो या न चाहों, आपके पर्सनल इन्फोर्मेशन तक लीक हो जाते हैं। आपको अपना बर्थडे भले ही न याद हो मगर आपके फ्रेंड्स के पास नोटिफिकेशन पहुँच जाएगा। और हॉस्टल के रिवाज के अनुसार, जिसका भी बर्थडे होता था, सारे बच्चे मिलकर लातों और घूंसों से उसकी खबर लेते थे। बर्थडे ब्वाय बेचारा कराहता रहता था मगर कोई उसकी सुने तब न ! आखिर पीटने वालों को भी पता होता था की उनकी बर्थडे भी तो ऐसी ही बीती थी। मैं कभी गाली नहीं देता मगर मुझे जो कुछ भी बुरे शब्द पता थे। मन-ही-मन फेसबूक को मैंने खूब कोसा। मेरी इस चुप्पी को मोहित ने न-जाने क्या समझा। उसने झटपट कॉल लगा दिया और साथ-ही-साथ स्पीकर भी ऑन कर दिया। रिंग जाने लगी। दो-तीन रिंग के बाद ही उधर से आवाज आई।
‘हैलो! कौन?’
पल भर के लिए तो मैं बिलकुल सुन्न पड़ गया। मोहित और दिनेश मुझे इशारा करने लगे- यार! कुछ तो बोल !
‘कौन ? श्रुति !’
‘हाँ। आप कौन?’
‘ यदि मैं कहूँ कि मैं आपको पसंद करता हूँ and I LOVE YOU.’ मैं इस तरह की परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ था। न तो किसी के साथ पहले मेरा कोई अफेयर था न ही किसी लड़की को किस तरह से प्रोपोज करते है। इसका कोई अनुभव। इसलिए मैं डायरेक्ट प्वाइंट पर आ गया। जो मेरी शर्त का हिस्सा थी।
‘ मगर आप हैं कौन?’
‘बिना जाने क्या आप अपना जवाब नहीं देंगी?’
‘ ऐसे तो कोई भी जवाब नहीं दे सकता।'
‘आप हसीन है, खूबसूरत हैं। और आपके दीवानों की लंबी फेहरिस्त है। समझ लीजिये कि आपके सैकड़ों चाहने वालों में से एक मैं भी हूँ।' शर्त पूरी हो चुकी थी। मगर मैं अपनी जिज्ञासा और उतावलेपन को रोक नहीं पा रहा था।
‘ किसने कहा कि मैं खूबसूरत हूँ।'
‘ खूबसूरती तो आँखों में बसती है। बस देखने वालों की नजर होनी चाहिए। मैं आपके आस-पास का ही हिस्सा हूँ।' मैंने अपने परिचय से उसे उलझाने की कोशिश की।
‘मुझे पता चल गया कि आप कौन है। पूरे कॉलेज में इस तरह की लैंगवेज़ और कोई बोल ही नहीं सकता।'
मैं हतप्रभ था। उसने मुझे पहचान कैस लिया? वह भी इतनी जल्दी। फिर मुझे ध्यान आया। मैंने कुछ सायराना खयाल रखे थे। बातें भी मैंने कृष्ठ हिन्दी में की थी और पूरी क्लास को मालूम था कि मुझे कविताओं और गज़लों का शौक है। मुझे हिन्दी से कितनी रुचि है? यह बात मुझे पहले क्यों नहीं समझ में आई? घबराहट और असमंजस की स्थिति में मेरे माथे से ठंढे पसीने निकल आए।
‘ यदि पता चल ही गया है तो मैं बता दूँ कि न तो मैं कोई दीवाना हूँ और न ही मुझे किसी से प्यार हुआ है।' इतना कहते हुए मैंने कॉल काट दी।
अगले दिन फर्स्ट पीरियड इंजीनियरिंग मेकेनिक्स की थी। मैं पहले ही पाँच मिनट लेट था। लेट तो मैं रोज ही होता था मगर वह लेक्चर आर॰ के॰ गुप्ता सर का होता था। गिने-चुने प्रोफेसरों में से वे थे, जिन्हें कुछ आता था हमारे सबजेक्ट्स के बारे में। उनके क्लास में आते ही एक आतंक-सा सभी के चेहरे पर दिखने लगता। वे आते ही प्रश्नों की झरी लगा देते। गनीमत तो तब हो जाती जब एक ही प्रश्न के लिए पूरी क्लास को खड़ा कर दिया जाता। यदि उत्तर, उनके उत्तर से जरा सा भी अलग होता तो भी वे उसे गलत समझते थे। जिन्हें उस टॉपिक का कुछ भी न पता हो, उनके लिए तो अग्नि-परीक्षा जैसी घड़ी होती थी। क्योंकि उनक सख्त निर्देश था कि कुछ-न-कुछ बोलना है। यदि कोई कह देता - मुझे नहीं मालूम। उनकी तरफ से एक ही आवाज गूँजती – pickup your bag and get out from the class. वह शर्मसार चेहरा लिए बाहर कर दिया जाता। एक तो सुबह-सुबह बच्चे ‘अटेंडेंस के भूखे’ क्लास में पहुँचते थे। वहाँ भी वे बाहर निकाल दिए जाते थे। कभी-कभी तो यह स्थिति लेक्चर के अंतिम दो-चार मिनट रहते भी घटित होती थी। बच्चे बाहर आकर उन्हें न-जाने कैसी-कैसी गालिया देते थे। एक और खास बात थी उनमें। लेट आने वालों को कब तक एंट्री देनी है? इसके लिए भी उन्होने माइंड सेटअप कर रखा था। यदि कोई पाँच मिनट लेट होता तो उसे बिना कुछ पुछे ही एंट्री मिल जाती थी। यदि कोई इससे ज्यादा लेट होता तो उसपर प्रश्नों की बौछार गिर पड़ती थी – क्यों, कैसे, कहाँ वगैरह-वगैरह। इतना कि आप झूठ बोलते-बोलते भी थक जाएँ। और यदि कोई ग्यारहवे मिनट में भी पहुँचता तो उसे एक ही उत्तर मिलता – come in next class.
मैं तेज कदमों से मेकैनिकल ब्लॉक की ओर बढ़ा। जैसे ही मैं अंदर पहुँचा, मैंने देखा – श्रुति और निशा भी तेज कदमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ रही थी। हमारी क्लास तीसरी मंजिल पर होती थी। लड़कियों में भी ग्रुपिज़्म होता है। लड़कों से कहीं ज्यादा। एक ग्रुप की लड़कियां दूसरे ग्रुप से कम-ही बात करती नजर आती थी। अब वे दोनों किस ग्रुप का हिस्सा थीं। यह तो बताना मुश्किल है। मगर श्रुति और निशा हमेशा साथ-साथ ही दिखती थी। श्रुति को देखते ही रात की घटनाओं की पुनरावृति मस्तिष्क में उभर आई। अचानक एक अपराधबोध मेरे अंदर-ही मेरे सामने आ खड़ा हुआ। वह मेरी शालीनता से उलझ पड़ा। वह मुझे धिक्कारने लगा। मैं तर्क और दलीलों में माहिर हूँ। मगर मेरा यह भी मानना है – तर्क का संबंध बुद्धि से है जबकि ज्ञान का संबंध विवेक से। हम तर्क से अपनी गलतियों को भी सही साबित कर सकते हैं, मगर इससे, हृदय पश्चाताप के बोझ से मुक्त नहीं होता। मन में आया कि अभी-ही सच्चाई बता दूँ। फिर सोचा- जब उसे मालूम ही है तो फिर क्या बताना ! इन्हीं उत्कंठाओं से घिरा मैं उनके पीछे- पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सीढ़ियों पर बढ़ता मेरा हर कदम मुझे उद्विग्न कर रहा था। जब वे दोनों पहली मंजिल पर पहुंची और आगे बढ़ना ही चाहती थीं। तभी मैंने आवाज दी।
‘श्रुति !’ आवाज सुनकर दोनों रुक गई। नहीं तो ज़्यादातर एक आवाज में ये रुकती कहाँ हैं? बाकी सीढ़ियों का फासला मैंने तेजी से तय किया।
‘आई एम सॉरी।'
‘सॉरी फॉर व्हाट।' वह आश्चर्य से बोली। जैसे उसे कुछ पता ही न हो।
‘कल वह कॉल मैंने ही किया था।' मैंने निर्भीक भाव से कहा। मेरी आवाज में संकोच और असमंजस साथ-साथ घुले थे।
‘ श्रुति ! मैं चलती हूँ।' यह कहते हुए निशा आगे बढ़ गई।
मुझे समझ नहीं आया। निशा ने ऐसा क्यों कहा। मैं कोई प्राइवेट टॉक तो नहीं करने आया था। क्योंकि मैंने सुना था कि ऐसे समय में सहेलियाँ लड़की को अकेला छोड़ देती हैं। मगर यहाँ तो ! श्रुति ने निशा को कुछ नहीं कहा। बस उसे जाते हुए देखती रही। मुझे ऐसा लगा मानो उसे रुकने को कह रही थी। अब हम दोनों वहाँ अकेले रह गए थे। सबसे आश्चर्यजनक बात मुझे यह लगी कि कॉल वाली बात बताने पर भी श्रुति के चेहरे पर मुझे कोई भाव नजर नहीं आए। मेरी उस हरकत से वह दुखी थी, नाराज थी, खुश थी। कुछ भी समझ न आया। एक अजीब-सी खामोशी उसके चेहरे पर थी।
‘ फ्रेंड्स ने चैलेंज कर दिया था कि मैं किसी लड़की को प्रोपोज कर सकता हूँ या नहीं......’ खामोशी को चीरते हुए मैंने कहा। अंतिम शब्द म्रेरी हलफ से निकल नहीं पाए। उसने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा मानो मुझे अचल बना देना चाहती हो। और फिर बिना कुछ कहे सीढ़ियों पर आगे बढ़ गई। मैं बता नहीं सकता मुझे कितना गुस्सा आया। ऐसा क्या कर दिया। प्रोपोज ही तो किया है। कोई रेप थोड़े ही कर दिया है। एक तो मैं किसी से माफी नहीं मांगता था और वह भी किसी लड़की से ! वह तो मुझे लगा था कि मैं गलत हूँ। बस इसीलिए ! कौन-सी ये सभी सती-सावित्री हैं। इतने लड़के जब इनपर कमेन्ट पास करते हैं, तब तो ये सभी मुस्कुराते हुए निकलती हैं। जैसे सभी इन्हें कंप्लीमेंट दे रहे हो। कॉलेज के फ़ेस्ट या किसी कल्चरल इवेंट में तो कैंपस को रैम्प शो ही बना देती है। इतना परफ्यूम लगाती हैं कि तीन row बाद बैठे लोगों को भी पता चल जाता है कि कौन सा ब्रांड यूज किया है। और अभी मैंने माफी क्या माँगी, खुद को देवी समझ बैठी। कुछ देर तक तो मैं वहीं खड़ा रहा। फिर क्लास की ओर चल पड़ा। जैसे-ही ऊपर पहुँचा। मुझे गुप्ता सर की आवाज सुनाई दी।
‘come in next class.’
मैं समझ गया कि श्रुति भी उनके दस मिनट के माइंड सेटअप से पीछे रही होगी। गुप्ता सर की यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगती थी। वे लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं करते थे। पनिशमेंट के भी पैमाने नहीं बदलते थे। लड़कियों के लिए भी नहीं। खूबसूरत लड़कियों के लिए भी नहीं। वरना कुछ प्रोफेसर्स तो इतने ठरकी होते थे कि लड़की को देखते- ही अपने सारे निश्चय बदल लेते। यदि लड़की खूबसूरत हुई तब तो उसकी चापलूसी पर भी उतर आते। इस तरह के फायदे लड़कियों को हमेशा ही मिलते थे। वे अपनी मार्क्स भी बड़ी आसानी से बढ़वा लेती। viva वगैरह में तो प्रोफेसर्स उनसे पुछकर ही कोई प्रश्न पुछते थे। मैंने तो यहाँ तक सुना था कि इंटरविऊ में भी खूबसूरत लड़कियों से कुछ नहीं पूछा जाता। पता नहीं वहाँ जाकर कौन- सा मोहिनी मंत्र चलाती हैं? यह तो उन्हें ही पता होगा। खैर ! मैंने क्लास के दरवाजे तक भी जाने की कोशिश नहीं की। वही सीढ़ियों पर बैठ गया। श्रुति कुछ देर तक तो दरवाजे के बगल में ही दीवार से पीठ अड़ाए खड़ी रही। फिर धीर-धीरे कदमों से मेरी तरफ आई।
‘ तुम्हारी हिन्दी कितनी इम्प्रेशिव है?’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।
मुझे उसकी मुस्कुराहट में एक अजीब-सी कुटिलता नजर आई। मन में आया कि अभी एक तमाचा जड़ दूँ। अभी तो मुझे ऐसे देख रही थी, मानो मुझे कच्चा चबा जाएगी। और अब !
‘ हाँ ! मैंने बारहवीं में हिन्दी ले रखी थी।' मैंने अनमने भाव से बिना उसकी तरफ देखे ही उत्तर दिया। हालांकि मेरी अच्छी हिन्दी होने में उसका कोई यागदान नहीं था।
‘वह तो मैंने भी ली थी?' उसने दुबारा प्रश्न दोहराया।
‘मैंने अपनी पॉकेटमनी के ज्यादा हिस्से हिन्दी मैगजीन, नोवेल्स को खरीदने में लगाया है। कोई तुम्हारी तरह कॉस्मेटिक्स, मेकअप और टेडिवियर खरीदने में नहीं।' मगर मैंने ऐसा नहीं कहा। बस यही कह पाया -
‘स्कूल की लाइब्रेरी में काफी बुक्स थीं। और पढ़ने में मेरा काफी इंटरेस्ट था।' मैं अभी ऐसे वार्तालाप के मूड में नहीं था। इसलिए मैंने विषय को परिवर्तित करते हुए कहा –
‘अभी लेक्चर खत्म होने में तीस मिनट रह रहे हैं।'
‘Should we go for a coffee?’ अभी तो काफी समय है।‘ उसके इस शब्द में अनुरोध से ज्यादा आदेश भरा था। लड़कियों का दिमाग कैसे काम करता है? यह मुझे समझ में नहीं आता। कुछ देर पहले मुझे ऐसी उपेक्षित नजरों से देख रही थी मानो मैंने कोई अक्षम्य अपराध किया हो। और अभी अचानक कॉफी पीने की बात। मगर मैं खुद को रोक नहीं पाया। जबकि मुझे पता था कि इस कॉफी का बिल तो मुझे ही देना पड़ेगा। हम दोनों ब्वायज हॉस्टल की कैंटीन की तरफ चल पड़े।
कभी- कभी समय का चक्र इतनी तेजी से घूमता है कि आप समझ नहीं पाते कि आपके साथ क्या हो रहा है? कल तक मैं लड़कियों से कोसों दूर रहता था। उनके गतिविधियों में मुझे केवल दिखावापन नजर आता था। कैसे वे लड़कों को फँसाती है? एक-साथ न जाने कितनों को उलझाए रखती हैं और हाथ किसी के भी नहीं आती। ऐसी कितनी ही बातें! और आज खुद, एक लड़की के साथ कैंटीन में कॉफी ! मुझमें यह अचानक परिवर्तन क्यों हुआ, कैसे हुआ। यह मेरी समझ से परे था।
‘ मैं यहाँ कम-ही आती हूँ। मगर यहाँ की कॉफी मुझे पसंद है।' श्रुति अपने बालों को संवारते हुए बोली।
‘रोज ही आ जाया करो। तुम्हें देखकर कितनों का दिल भी बहल जाएगा।' मन में आया कि ऐसा कहूँ। मगर नहीं कहा।
स्वभाव से ही मैं अंतर्मुखी हूँ। नए लोगों से बातें कैसे शुरू करें। मुझे समझ नहीं आता। कुछ क्लोज दोस्तों को छोडकर मैं बहुत कम-ही मिल-जुल पाता हूँ। अपने घर पर भी मैं कम ही बात-चीत करता हूँ। कुछ लोगों को मैंने देखा है। बड़ी जल्दी वे संपर्क बना लेते हैं। उन्हें बाते करते देखकर ऐसा लगता है जैसे वर्षों से उनकी जान-पहचान हो। यह किसी आर्ट से कम नहीं। मैं यह कला कभी नहीं सीख पाया।
‘मुझे तो उसी समय पता चल गया था कि वह कॉल तुमने किया है। लेकिन मैं स्तब्ध थी। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मेरा मतलब ! तुम कभी ऐसा नहीं कर सकते।' उसने मेरी चुप्पी को नजरंदाज करते हुए कहा। किस तरह के विश्वास की बात कर रही थी वह? यह बताना मुश्किल था।
‘ हैरान तो मैं भी हूँ।'
‘ लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई। मुझे ही क्यों चुना?’ उसके चेहरे पर विस्मय और जिज्ञासा की झलक मुझे स्पष्ट दिखाई दी। लड़कियों में यह कॉमन होता है। वे खुद के बारे में सुनना बेहद पसंद करती थी। शायद वह जानना चाहती थी कि लड़कों के बीच उसका कैसा क्रेज है? और कौन-कौन सी लड़कियां हैं, जो इस दौर में उसकी प्रतिद्वंदी हैं? किन-किन पर चर्चाएँ होती है? मैंने पूरी घटना यथावत सुना दी।
उस तीस मिनट में हमारे बीच बहुत-सी बातें हुई। मैं तो केवल सुनता ही रहा। उस दिन मुझे पता चला। गर्ल्स हॉस्टल की स्थिति तो और भी खराब है। एक कमरा तीन स्टूडेंट्स के लिए अलॉट होता है। मगर वार्डेन उसमें चार-चार लड़कियों को एडजस्ट कराते हैं। कभी-कभी तो यह संख्या पाँच भी हो जाती है। उसी तीन आलमारी को सभी मिलकर शेयर करती हैं। सर्दियों में हीटर तक यूज करने नहीं देते। वार्डेन ने उनके सौ से ज्यादा हीटर छीनकर जमा कर रखे हैं। मेस में चम्मच तक नहीं देते। कभी- कभी तो थाली भी खुद ही लाना पड़ता है। अब भी सीनियरिटी और रैगिंग काफी ज्यादा है। पिछले साल तो एक लड़की के कपड़े तक उतरवा दिए थे। लड़कियाँ भी इतनी आक्रामक होती हैं। यह बात भी पता चली।
 
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Friday, March 29, 2013

लव....ब्रेकअप......जिंदगी.....

सुना था, इत्तिफ़ाक केवल फिल्मों और कहानियों तक ही सीमित होकर रह जाते है, मगर असल जिंदगी में यह, इस तरह आएगा, इसका मुझे आभास तक नहीं था।
ऑफिस से निकलकर मैं रोज वसंतविहार डिपो से घर के लिए बस पकड़ता था। वह शाम भी सामान्य दिनों की तरह थी। हल्की, बची-खुची धूप लिए उमस से भरी। दिन भर की थकान, दिल्ली की ट्रेफिक और डी॰टी॰सी॰ बसों की भीड़ तीनों मिलकर यमराज को भी जिंदा न रहने दे, फिर आदमी की क्या बिसात। पीछे के दरवाजे से चढ़कर मैं सामने की सीट पर बैठ गया। मैं तो खुशनसीब होता था जो डिपो से बैठता था, वरना लोग तो खड़े होकर ही पूरा सफर गुजार देते थे। यदि किसी को बीच सफर में सीट मिल जाती तो, वह लाख बार ईश्वर का धन्यवाद करता था। शुक्र है अब बसों में भी एयरकंडीशन की सुविधा है। भीड़ में भी कम-से-कम दम नहीं घुटता। सीट पर बैठते ही मैंने खुद को अगले डेढ़ घंटे के लिए निश्चिंत कर लिया, क्योंकि बस को घर पहुँचने में कम-से-कम दो घंटे तो लग ही जाते थे। अभी बस एक स्टॉप ही क्रॉस कर पायी थी और पूरी बस भर गयी। लोग दोनों सीटों के बीच में जो जगह होती थी, वहाँ खड़े हो जाते थे। खड़े क्या होते थे, यूं मानिए टंग जाते थे। बस की छत और फर्श के बीच में। उनके लिए सीट पर बैठा व्यक्ति स्वर्ग में बैठा प्रतीत होता था। खैर! मैं मजे में बैठा हल्की-हल्की उंघिया ले रहा था। तभी आगे से मुझे एक जानी-पहचानी लेडिज़ आवाज सुनाई दी।
'एक्सक्यूज मी। इट्स लेडिज़ सीट!'
मैंने अपने आगे खड़े हुये लोगों को थोड़ी जगह देने को कहा जिससे मैं उस लेडी को देख पाऊँ। देखकर मैं हैरान रह गया। श्रुति, इस तरह यहाँ। उसने ब्लू साड़ी पहन रखी थी। बालों में एक छोटा-सा क्लिप, जैसा वह अक्सर लगाया करती थी। वह लेडिज़ सीट थी। जहां तक मुझे समझ में आया, एक भद्र पुरुष अपनी बीवी के साथ बैठे थे। श्रुति के बोलते ही वे उठ खड़े हुए। नहीं तो कहीं-कहीं मैंने देखा है लोग तो नारी सशक्तिकरण तक का मामला खड़ा कर देते है। ऐसी- ऐसी दलीलें कि यदि पुरुष और नारी समान है और पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हैं तो फिर इस तरह का आरक्षण क्यों? मगर यहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने अपने आँचल को संभाला और सीट पर बैठ गयी। मैं तो इन सारी घटनाओं को समझ भी नहीं पा रहा था। कॉलेज पूरे हुए पाँच साल हो गए थे। और आज हम इस तरह बस में मिल रहे हैं। एक ही क्षण में हजारों स्मृतियों ने मुझे घेर लिया। मन हुआ, अभी जाकर उससे कुछ बात करूँ, मगर बस की भीड़ और फिर से सीट न मिल पाने पर खड़े-खड़े पूरे सफर गुजारने की भयावहता ने मुझे रोक लिया। मगर विचारों को मन में आने से कैसे रोकता और वह भी तब जब वह मेरी जिंदगी के सबसे हसीन पन्ने थे।
उसके साथ पहली बात, पहली मुलाक़ात सारे दृश्य एक साथ उभर आए। बहुत कम लोगों के साथ होता है कि आप लड़की से न कभी पर्सनली मिले हो न कुछ बात की हो और फिर भी आप उसे प्रोपोज कर दें। कुछ ऐसा ही तो हुआ था। हुआ यूं था कि हम चार-पाँच फ्रेंड्स बॉय्ज़ हॉस्टल में बैठे थे। जैसा अमूमन हर हॉस्टल में होता है। दो बातों पर हर कोई डिस्कस करता है- क्रिकेट और लड़कियां। ये दो टॉपिक तो ऐसे हैं, जिसमें हर कोई पी॰एच॰डी॰ होता है। घंटो बहस होती थी। आज कौन-सी लड़की ने कौन सा ड्रेस पहना? कल उसने क्या पहना था? फेसबूक पर उसके कितने फ्रेंड्स है? किस सीनियर के साथ किसका कनेकस्न है, वगैरह वगैरह। बात इतने पर नहीं रुकती थी।  कुछ लोग तो दावा कर देते थे के वे चलती हुई लड़की को दूर से ही स्कैन कर सकते हैं और उसका 'साइज' तक बता देते थे। हाँ ये बात अलग है कि वह साइज सही होता था या नहीं, इसके लिए तो उस लड़की से पूछना पड़ता। ऐसा किसी ने कभी नहीं किया। कम-से-कम इंजीनियरिंग कॉलेज में सीखे टैलंट का पता तो चलता। यदि कोई ऐसे डिबेट में भाग नहीं लेता था, तो लोग उसे मानसिक रूप से बीमार (mentally ill) घोषित कर देते थे। ऐसे भी कई बच्चे थे। मुझे तो तरस आता था, उनपर। शालीनता को किस तरह से कॉलेज में पागलपन से जोड़ दिया जाता है। जहाँ तक मेरी बात थी, मैं किसी भी ऐसे मुद्दे से न तो खुद को बिल्कुल अलग रखता था और न ही उल्टे-सीधे दावे पेश करता था। हाँ यह बात थी। मैंने कभी किसी लड़की को न ही छेड़ा था और न पागलों की तरह किसी के पीछे भागा करता था, जिसे व्यावहारिक भाषा में ‘लाईन मारना’ कहते हैं। इस मामले में मेरी अपनी राय थी। हमेशा लड़के ही लड़कियों के पीछे क्यों भागते हैं? जरूरत लड़कियों की भी है। दिल तो उनके सीने में भी धड़कता है, तो फिर बेकरारी का बोझ अकेले हम लड़के ही क्यों झेले? और सच कहूँ तो मुझे अभी तक ऐसी लड़की दिखी नहीं, जिसके लिए मैं बेकरारी के आलम को झेलने के लिए तैयार हो जाऊँ। वैसे भी मेकैनिकल ब्रांच में पहले से ही लड़कियों की इतनी shortage होती है। सत्तर बच्चों की क्लास में बारह या पंद्रह लड़कियां। यानि हर पाँच या छह लड़कों के हिस्से में एक लड़की। हाल कुछ वैसा ही होता है जैसे पाँच पांडवों के लिए एक द्रौपदी। पांडवों के बारे में तो सोचकर भी मुझे हैरानी होती है। आखिर उन्होने मैनेज कैसे किया होगा? द्रौपदी की स्थिति का तो अंदाजा भी लगाना मुश्किल है। क्या उस समय यौन रोग या एड्स जैसे समस्याएँ नहीं थी? उन्होने इसका कुछ-न-कुछ समाधान तो निकाला ही होगा। ऐसे भी बड़ा ही हाइटेक युग था वो। पल भर में वे क्या- क्या कमाल दिखा देते थे। मगर यहाँ तो किन पांडवों की द्रौपदी कौन है, इसका भी पता न था। यह ब्रांच के लड़कों के चेहरे की हताशा से साफ पता लग जाता। जब वे दूसरे ब्रांच जैसे C.S.,I.T. या E.C.E. के लड़के- लड़कियों को बातें करते देखते तो उन्हें कम्पलेक्स- सा हो जाता। बेचारे खुद को कोसते, क्यों इस ब्रांच में आए। मेहनत भी करो, सिलेबस भी सबसे ज्यादा और इंटरटेनमेंट के साधन, न तो क्लास में, न ही बाहर।
हम सब उस दिन भी कुछ ऐसे ही सामाजिक परिवर्तन और समानता की बात कर रहे थे कि लड़कियों के मामले में सबसे सही और उपयुक्त ब्रांच कौन है? किस कमरे की हवा में जादू है कि लड़कियां खींची चली आती हैं? जबकि ऐसा कुछ न था। अचानक मोहित ने मुझसे पूछ लिया।
'देव ! मैंने तुम्हें कभी किसी लड़की के पीछे भागते नहीं देखा।'
'अभी तक कोई पसंद नहीं आई।'
'ऐसे ही लोग अंगूर न मिलने पर उसे खट्टा बोल देते हैं। लड़की पटाने के लिए जिगर चाहिए।' उसने ताव देते हुये कहा।
'प्रोपोज करने में अच्छे- अच्छों की लग जाती है। गट्स होना चाहिए इसके लिए।' उसने रुककर कहा।
एक बात थी मुझमे। मैं अंतर्मुखी जरूर था और सामान्य तौर पर बहुत कम लोगों से ही बात-चीत करता था और लड़कियों से तो न के बराबर। मगर इसका यह मतलब नहीं के मैं हिचकता था या डर के मारे किसी से बात नहीं करता था। मेरा स्वभाव ही शायद ऐसा था। मगर बात जब गट्स की हो गयी। इसके लिए तो मैंने अब तक न जाने कितने टीचर और प्रोफेसर से पंगे ले लिए थे। तो फिर किसी लड़की से क्या डरना?
‘ऐसी बात है तो ! प्रोपोज मैं किसी भी लड़की को कर सकता हूँ।‘ मैंने निर्विकार भाव से बड़े ही विश्वास के साथ उत्तर दिया। कुछ देर के लिए हम चारों में चुप्पी छा गई। सभी को पता था कि रिस्क लेने से मैं कभी पीछे नहीं हटता था। बहुत से उदाहरण थे उनके पास।
‘तो चलो! आज यह भी देख लेते हैं। तुम्हें अभी चलकर किसी भी लड़की को प्रोपोज करना पड़ेगा। हम गर्ल्स हॉस्टल के सामने वाली कैंटीन पर जाएँगे। वहाँ जो भी लड़की मिलेगी, उसे प्रोपोज करना पड़ेगा।‘ मोहित ने जैसे अल्टिमेटम दे दिया।
पता नहीं ऐसे वाहियात और सरफिरे आइडियाज़ उसके दिमाग में क्लिक कैसे कर जाते थे और वह भी बिल्कुल एन वक्त पर। इन्हीं सब चक्करों में उसके प्वाइंटर्स पाँच और छह के बीच में झूल रहे थे। उसने तो न जाने कितनों पर ट्राई किया था, कितनों के पीछे भटका, मगर एक भी हाथ न आई थी। हालांकि मेरे प्वाइंटर्स भी उससे ज्यादा बेहतर नहीं थे। फिर भी मेरा सात से कुछ ऊपर था, जो प्लेसमेंट के लिए बहुत अच्छी तो नहीं पर ठीक मानी जाती थी। मगर वह तो कहीं नहीं था। प्लेसमेंट की नाव की अगर बात करें तो मैं उसमें कभी डूबता या उतरता, मगर उसकी नैया तो डूब चुकी थी। और जैसा कि अक्सर होता है, ऐसे समय डूबने वालें लोग खुद को मोती ढुढ़कर लाने वाला समझ लेते है। डुबना गोते लगाने में परिवर्तित हो जाता है। और जवाब कुछ इस तरह का होता है, जो मोहित अक्सर दिया करता था- ‘ मुझे तो C.A.T. की तैयारी करनी है। इंजीनयरिंग में रखा क्या है? इतने लंबे-लंबे इक्वेशन, जो कहाँ से शुरू होते हैं और कहाँ खत्म। इसका भी पता नहीं चलता। प्रोफेसर्स को तो खुद, कुछ भी याद नहीं होता। सबने अपनी एक नोट्स बना ली है। पेपर लेकर आना और पूरी क्लास को छपवा देना। एक भी लाइन, बिना देखे नहीं लिख सकते। यदि कोई उनसे पूछ ले या उनका एक्जाम लिया जाए, सारे फेल हो जाएँगे, उसी सबजेक्ट में, जो वे हमें पढ़ाते हैं। कुछ लोगों ने तो अपने सबजेक्ट्स की पूरी फिल्म ही बना रखी है। आते हैं, और पूरी फिल्म पावर प्वाइंट पर दिखा देते है। डिस्कवरी चैनल की तरह कुछ अजीबो-गरीब चीजें प्रकट होती है, जिनके नीचे पैशाचिक फोर्मूले होते हैं, जिन्हें लिखने में नोटबूक की कई लाईने लग जाए। अभी हम लिख ही रहे होते हैं कि तभी वे अदृश्य हो जाते हैं। और फिर प्रोफेसर की आवाज गूँजती है- ‘It is important for your internals as well as semester exams.’ बचचें भी इतने होशियार कि एक बार में ही समझ जाते हैं। क्योंकि जब प्रोफेसर्स पुछते हैं- “any doubt”.कोई उठकर नहीं बोलता कि नहीं समझ आया। जबकि यह बात उस लेक्चरार को भी मालूम होती है कि किसी ने कुछ भी नहीं समझा। कुछ प्रोफेसर्स, जो खुद को विद्वान या शिरोमणि समझते हैं, वे दुबारा भी पूछ लेते हैं- ‘any doubt please.’ और जब पूरी क्लास में चुप्पी छा जाती है तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। मानो आज उन्होने कृष्ण को भी पछाड़ दिया हो और गीता से भी ज्यादा रहस्यमयी ज्ञान का प्रसाद बाँट दिया हो। मैं पूछता हूँ ऐसे फालतू और बोरिंग इक्वेशन्स को याद करने की जरूरत क्या है? याद करने के बाद इंडस्ट्री या कंपनी में काम तो मैनेजर का ही करना होता है। पता नहीं ये लोग पिछले सौ सालों से उसी सिलेबस को क्यों दोहरा रहे हैं? जो हमें सीखनी चाहिए, वो तो सिखाते नहीं, बस रट्टा मारने वाली मशीन बनाकर हमें छोड़ देंगे? जिसने जितनी ज्यादा मेहनत की है रटने में, उसके उतने ही ज्यादा प्वाइंटर्स। मैं पूछता हूँ, जिनके नौ या दस प्वाइंटर्स है, उन्होने क्या नया सीख लिया है? अभी उनसे फर्स्ट सेमेस्टर का कुछ पूछ्कर देखो। सारा टैलंट पता लग जाएगा। ऐसे एक्जाम टाईम में निगलकर और उसे पेपर में उगलने का क्या फायदा?’ इस तरह के न-जाने कितने-ही तर्क और दलीलें वह पेश किया करता था। मगर मेरे लिए मुद्दा अभी उन सभी बातों को याद करने का नहीं था। मुझे नहीं आभास था कि वह ऐसी कोई शर्त, अभी-के-अभी रख देगा। कहने में तो बड़ा आसान लगता है, मगर प्रोपोज करना ! मैंने तो इसके बारे कभी कुछ सोचा तक नहीं था। फिर भी खुद को नियंत्रित रखकर मैंने घड़ी की ओर देखा।
‘ शाम के सात बज रहे हैं। गर्ल्स हॉस्टल तो अब तक बंद हो जाता है।‘
‘तो क्या हुआ। यह हमारा काम है। और ऐसे भी अभी सात- आठ मिनट रह रहे हैं। देखते हैं हमारी किस्मत क्या रंग लाती है?’ उसने चहकते हुये कहा।
किस्मत क्या रंग लाती। मुझे तो इस पूरी घटना का भविष्य अंधकारमय दिख रहा था। आज तक मैंने किसी लड़की के ऊपर कोई कमेन्ट भी पास नहीं किया था और आज अचानक प्रोपोज और उसपर मुझे यह भी नहीं मालूम वह लड़की कौन होगी? कहीं सीनियर निकल आई तो! कैसे- कैसे खयाल जेहन में उमड़ने लगे। फिर मैंने सोचा। अभी कोई लड़की कैंटीन पर मिलेगी ही नहीं। तो बेकार में क्यों डरना? चलकर आज इनकी यह तमन्ना भी पूरी कर देते हैं। इन्हें भी तो पता चले कि देव केवल डींगे नहीं हाँकता, बल्कि उसे पूरा भी करता है। यह मेरे व्यक्तित्व की खासियत भी थी। मैंने शर्त मंजूर कर ली और हम चारों- मैं, मोहित, वैभव और दिनेश हॉस्टल से कैंटीन की तरफ निकल पड़े। एक अबूझ पहेली को समझने, जबकि हमें तो पहेली का भी पता न था।
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Sunday, March 24, 2013

समर्पण


दिन-भर की थकन से,
जब लौटते हो घर,
और, भर लेते हो बाँहों में,
मुझे, अपनी पनाहों में।
उस पसीने की खुशबू से,
महकती हूँ मैं।
तुम्हारा, तर-बतर भींगा बदन,
आगोश में, न जाने क्यों,
दमकती हूँ मैं।

यह पूनम की रात,
और तुम्हारा स्पर्श।
माथे पर चाँद,
और, आँखों में हर्ष।
स्वप्नों की बाती,
और, जुगनू के दिये,
दोनों मदहोश,
तो क्योंकर, कुछ पिए।

मेरे कपोलों पर,
तुमहारें अधरों का निशान।
माथे पर चमकती,
वह सिन्दूर की शान।
जो देती है, मेरे,
अस्तित्व को पहचान।
यह होली-दिवाली,
तुम्हीं से तो है।
यह रस्मों की लाली,
तुम्हीं से तो है।
स्वप्नों के देवता तुम,
और मैं, तुम्हारी दर्पण।
यह अरुणिमा, यह मधुरिमा,
सर्वस्व, तूम पर अर्पण।
कुछ ऐसा है -
मेरा- तुम्हारा समर्पण...........

Wednesday, March 13, 2013

विरह- व्यथा

सप्तवेणी, इस धरा पर,
शरद का, यह चंद्रमा,
स्वर्ण, नूतन रश्मियों से,
रात को सजाता है।
और मेरा, उर पिपासु,
दृग में भरकर प्रेम आँसू,
अश्रु- जल बहाता है।

क्यों वह ऊष्मा न रही,
हम दोनों के संबंध में,
उस प्रीत के सौगंध में,
युग वहीं ठहर गया,
खामोश हीं गुजर गया।
वक्त के जिस मोड़ पर,
संबंध सारे तोड़ कर,
हम जहाँ अलग हुए,
आज भी उस मोड़ से,
अतीत के उस छोर से,
कोई मुझे, बुलाता है।
अश्रु- जल बहाता है।

यह कैसा अंतर्द्वंद है,
गंगा का, अपने नीर से,
इस रूह का, शरीर से।
पुछती है, हर घड़ी,
निस्तब्धता की वेदना,
और यह, व्यथित हृदय,
नैराश्य में, डूबा हुआ,
क्षीण और ऊबा हुआ,
स्मृति के मुहाने पर,
अनायास, चला जाता है।
अश्रु- जल बहाता है।  

Sunday, March 10, 2013

वो कहते हैं कि बदल रहा हूँ मैं

वो कहते हैं, कि, बदल रहा हूँ मैं।
फिर क्यों, सुपुर्दे-खाक में भी, जल रहा हूँ मैं।

सच सुनाने का सिला, लोगो ने यूं दिया,
क्यों, व्यर्थ के सवाल पर, उबल रहा हूँ मैं।

आज मेरे साये से भी, कतराते हैं वो,
दामने जिनका सितारा, कल रहा हूँ मैं।

बदनसीबी ने मुझे, मुकर्रर कर दिया,
कभी हसीन लम्हों का, गजल रहा हूँ मैं।

सियासतों की जंग ने, कुछ इस कदर लूटा मुझे,
कि वक्त के मरहम तले, सम्भल रहा हूँ मैं।

सुना है कि मौत भी, महबूब जैसी है,
इसी तजुर्बे के लिए, मचल रहा हूँ मैं।

Saturday, March 9, 2013

फिर नील गगन अपना होगा

प्रिय ! तुम्हारी आँखों के,
इन अश्रु की सौगंध मुझे,
रोक नहीं, अब पाएगा,
इस जीवन का, तट-बंध मुझे।
हो प्रेम, हमारा इस जग में,
या पार, अलौकिक उस जग में।
उस परम पिता, परमेश्वर को,
एक विश्व नया, रचना होगा।
फिर नील गगन अपना होगा।  

तुम मेरी प्राण-सुधा सुभगे,
मैं अमृत, तुम्हरे अधरों का।
हम दोनों के इस जीवन पर,
अधिकार नहीं, इन बधिरों का।
जो इस समाज के ज्ञाता हैं,
और रस्मों के निर्माता हैं।
अंगारों पर, चलकर ही,
हमें कुन्दन, बन तपना होगा।
फिर नील गगन अपना होगा।  

इस पथ पर, चाहे मृत्यु हो,
या तम से, घिरा हुआ जीवन।
अब जीवन की परवाह किसे,
सर्वस्व किया, तुझको अर्पण।
जब शव, दोनों के निकलेंगे,
आजाद परिंदे, हम होंगे।
हर धड़कन, प्रीतम झूमेगी,
तब पूरा यह सपना होगा,
फिर नील गगन अपना होगा।

Saturday, February 9, 2013

नारी उत्पीड़न


नारी –
चीखती है, चिल्लाती है।
उसकी करुण आवाज भी,
बड़ी दूर, तक जाती है।
बस एक पुकार, और आँसू ,
हजारों की आँखों में,
दया, उमड़ आती है।
 
मगर, बेचारा पुरुष –
वह तो ठीक से,
कभी रो-भी नहीं पाता।
बेचैनियों की बाँहों में,
जागता है, रात भर,
मगर शुकुन, की चादर में,
सो भी नहीं पाता।

और जब उठता है, सुबह में,
तो देखता है, भीड़,
लिए हुये, कुछ झंडे,
कुछ झंडे और एजेंडे,
जहाँ, लिखा है, उसका दोष –
नारी उत्पीड़न...............

Saturday, January 19, 2013

लावारिस

कहाँ उन्हें पता था-
कि खींच ली जाएगी,
रूह तक, इस जिस्म से,
कि कफन भी, उन्हें न मिलेगी,
खुद में, सिमटने के लिए,
कि दफन, हो जाएँगे,
वे भी, किसी अखबार में,
किसी लावारिस की तरह......

क्योंकि -
जुर्म जो किया था -
उन्होने इस समाज से,
खिलाफत, जो करने की,
रिवाजों, से लड़ने की।
कसम ली थी, दोनों ने,
संग जीने-मरने की............

Saturday, January 12, 2013

तू जो भी है

तू जो भी है-
मुझमें समाता भी तो नहीं।
करूँ लाख कोशिशें,
मगर तू हैं कि मुझसे,
दूर, जाता भी तो नहीं।
 मैं एक कतरा –
कैसे समझूँ तुझे,
जो बहता है, आँखों से,
शबनम की तरह,
कभी मेरे होठों से,
सरगम की तरह।
कुछ कहता है, मुझसे,
फिर लड़ता है, मुझसे।
छुपाता है, खुद को,
मेरे ही दामन में।
उलझता है, मुझसे,
मेरे ही, आँगन में।
इतने पर भी, मुझे,
अपना बनाता भी तो नहीं।
कैसे अलग कर दूँ,
तू सताता भी तो नहीं।

तू हवा है, फिजाँ है,
या अधूरी ख़्वाहिश।
तू सागर है, साहिल है,
या, हल्की-सी बारिश।
जो दिलाता है एहसास –
मुझे अपने होने का,
भरी महफिल में भी,
तन्हाँ होकर, रोने का।
टूटते हुए तारों में,
सपने सँजोने का।
कब तक रहेगा गुमसुम,
कुछ बताता भी तो नहीं।
तू मेरा ही है हिस्सा,
यह जताता भी तो नहीं।

तू खुदा की है नेमत,
या मेरा ही वजूद।
नहीं खबर मुझे,
मगर, यकीं है -
तू जो भी है, जैसा भी,
तू मेरा है।
सिर्फ मेरा.........................

वह प्यार कहाँ से लाऊँ मैं

तुम सृष्टि का सर्वस्व प्रिय,
और मैं, इस जग का अनुयायी।
तुम नभ तक उज्ज्वल, प्रखर सूर्य,
मैं अपने हित का सौदायी।
फिर तुम्हें समाहित करने-सा, विस्तार कहाँ से लाऊँ मैं।
तुम्ही कहो इस जीवन में, वह प्यार कहाँ से लाऊँ मैं।

कनक लता-सी कोमल तुम,
रजनी तुम पर इतराती है।
उषा, तुमहारें कदमों पर,
नित रश्मि-रूप में आती है।
फिर इन्द्र-धनुषी रंगों-सा श्रिंगार कहाँ से लाऊँ मैं।
तुम्ही कहो इस जीवन में, वह प्यार कहाँ से लाऊँ मैं।

यह विश्व समूचा, प्रेम रूप,
चहूँओर तेरे, मतवालें हैं।
जिन अधरों की तुम स्वामी हो,
वे जीवन- रस के प्यालें हैं।
इन अधरों से रस पाने का, अधिकार कहाँ से लाऊँ मैं।
तुम्ही कहो इस जीवन में, वह प्यार कहाँ से लाऊँ मैं।

इस जग की तुम नहीं प्रिय,
तुम प्राण-सुधा, गंगा-जल हो,
घनघोर तपस्या से सिंचित,
किसी भागीरथ, का फल हो।
मूढ़, अधम मैं, धरती पर, व्यवहार कहाँ से लाऊँ मैं।
तुम्ही कहो इस जीवन में, वह प्यार कहाँ से लाऊँ मैं।