Friday, January 6, 2012

वेश्या क़ी आत्मकथा

मै एक वेश्या-

कभी थी मैं भी चंचल,
इतराती, खिलखिलाती,
उमंगो की धवल  पर,
स्वप्नों को सजाती.

फिर आ गया भी वह दिन,
यौवन कली बनी मैं.
नव कुसुम के नवल रस के,
भार से लदी मैं.

हाय रे भाग्य !किस तरह वह रूठा,
परिस्थितियों ने मुझे किस कदर फिर लूटा.
उमंगो का दमन कर अपना ली मृत्यु-शय्या,
विवशता के दौर में बन गयी एक वेश्या.

छुटा हरेक नाता,
माँ, बहन,बेटी का मुझमे,
अब रूप कैसे आता,
राह चलता मनुज भी,
कुलटा पुकार जाता.

चाहती हूँ लौटना,
मगर देखती हूँ द्वार पर,
नर -भेड़िये खड़े हैं,
नग्न करने को मुझे ,
वे बेकल पड़े हैं.

दिन के उजालों में,
कोई स्वीकार करे या नहीं,
मगर गर्व है ,मुझे इस बात का,
कितने अभागो के दर्द पर,
मरहम मैं लगाती हूँ.
निस्तब्धता के दौर में,
जब कुछ नहीं है सूझता,
अभागों का अपना भी,
जब नहीं है पूछता,
उस वक्त उनके सामने,
प्रेम- स्नेह, ममता का,
स्रोत ही बन जाती हूँ.

गम भी होता है मुझेकि,
रोज जिनकी आत्मा क़ी
प्यास मैं बुझाती हूँ
जिनके सुने ह्रदय में ,
जीने का उत्साह जगाती  हूँ
उन्हीं लोगों से भरे समाज में,
पतिता पुकारी जाती हूँ ?


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