कभी बहुत दूर , तो कभी हो पास,
कल्पना के प्याले में , भरती हो मिठास.
यह जानकर कि तुम हो, मुश्किलों का एहसास,
फिर भी तुम्हें पाने की , मुझे लगी है प्यास.
बंधनों से मुक्त हो , स्वछन्द तुम विचरती,
खयालों के साए से , दिल में तुम उतरती.
युवा उमंगें चाहती, उड़कर तुम्हें पकडती,
इतनी चंचल हो तुम , कहीं भी न ठहरती.
तेरा अनुपम, अलौकिक, अद्वितीय स्वरुप,
उत्साह और उल्लास से, भर जाता ह्रदय- कूप .
बढ़ रहा हूँ अब भी, जबकि कड़ी है धुप,
तभी तो मिलेगा मुझे, सुन्दर - सलोना रूप.
मेरी हरेक हार पर, जमाने का खिल-खिलाना,
मुकद्दर के क़हर से, फिर मुझे डराना.
लगन लगी है फिर भी, तुम्हें है सिर्फ पाना,
जहाँ तुम हो, वहीँ घर है, वहीँ मेरा ठिकाना.
कश्ती की प्यास है कि , उसे कब मिलेगा साहिल,
बेताब हूँ मै वैसे, करने को तुम्हें हासिल.
भूल गया अब मैं , है कौन तेरे काबिल,
बस तुम्हें ढूंढ़ता हूँ , कहाँ हो मेरी मंजिल.