Monday, February 20, 2012

मंजिल



कभी बहुत दूर , तो कभी हो पास,
कल्पना के प्याले में , भरती हो मिठास.
यह जानकर कि तुम हो, मुश्किलों का एहसास,
फिर भी तुम्हें पाने की , मुझे लगी है प्यास.

बंधनों से मुक्त हो , स्वछन्द तुम विचरती,
खयालों के साए से , दिल में तुम उतरती.
युवा उमंगें चाहती, उड़कर तुम्हें पकडती,
इतनी चंचल हो तुम , कहीं भी न ठहरती.

तेरा अनुपम, अलौकिक, अद्वितीय स्वरुप,
उत्साह और उल्लास से, भर जाता ह्रदय- कूप .
बढ़ रहा हूँ अब भी, जबकि कड़ी है धुप,
तभी तो मिलेगा मुझे, सुन्दर - सलोना रूप.

मेरी हरेक हार पर, जमाने का खिल-खिलाना,
मुकद्दर के क़हर से, फिर मुझे डराना.
लगन लगी है फिर भी, तुम्हें है सिर्फ पाना,
जहाँ तुम हो, वहीँ घर है, वहीँ मेरा ठिकाना.

कश्ती की प्यास है कि , उसे कब मिलेगा साहिल,
बेताब हूँ मै वैसे, करने को तुम्हें हासिल.
भूल गया अब मैं , है कौन तेरे काबिल,
बस तुम्हें ढूंढ़ता हूँ , कहाँ हो मेरी मंजिल.

 


Sunday, February 19, 2012

आह



तन्हाईयों की आह में , एक राज मैंने पाया है,
जिंदगी क्या चीज है, यह अब समझ में आया है.

रास्ते भर साथ अपने , कारवां भी था मगर,
अब लगा कि साथ मेरे ,बस ये अपनी काया है.

रोज जिनके आंसुओं के , लिए खून दे दिया,
अब लगा इन आंसुओं ने, बस मुझे नचाया है.

चाँदनी भी खिल रही है, अब तो देखो हर जगह,
अपनी ही किस्मत में कहो, कुहरों की घनी साया है.

मतलबपरस्त दुनिया में, गैरों की बात क्या करें,
जब यहाँ अपनों ने भी, मुझे इस कदर रुलाया है.

अश्कों से भींगे नयन देख, लोगों ने यहाँ यह कहा,
फड़क रही है, जरूर कोई शुभ घडी हीं आया है.

हम किसी को दोष दें, तो भी निकाले क्या कसर ,
जब खुदा ने यह मुकद्दर, मेरे नाम से बनाया है. 

Saturday, February 18, 2012

क्योंकि वह सीता नहीं थी




किए थे उसने भी,
अनेकों व्रत-उपवास.
ह्रदय- पटल पर बसी थी,
बस एक वर की आश.
वर हो उसके जैसे राम,
प्रेम-रुपी ईश्वर-धाम.
मगर मिला, ऐसा पति,
रोज होती थी सती.
यही उसका भाग्य था,
सौभाग्य हीं दुर्भाग्य था -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

छोड़ दी गई वह फिर,
घने निर्जन ,अन्धकार में,
विभत्सना के फर्श पर,
वासना की धार में.
वहाँ न था कोई रावण,
जो देता, सोचने का कुछ क्षण.
चाँदनी नहा रही थी,
लज्जा बिखरी जा रही थी.
सिर झुकाए मौन थी वह,
क्या बताए कौन थी वह -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

इधर -उधर, कितने पहर,
न जाने क्यों भटकती रही.
वह अभागिन आत्मा की,
बोझ से दबती रही.
शायद दुआ हीं असर लाए,
कोई वाल्मीकि, नज़र आए.
मगर वह, ऐसी अकिंचन,
विफल होता, जिसका रुदन.
सामने था, जहाँ सारा,
मिलता उसे , कैसे सहारा -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

असह्य हो गई थी पीड़ा,
मुख से निकलती थी हाय.
वसुंधरा ! मुझे गोद में लो,
मूर्छित गिरी, बाँहें फैलाए.
मगर धरती, इतनी निर्मम,
क्या समझती, अबला का गम.
क्यों उसे , गले लगाती,
अपने सीने में छुपाती -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

आँगन से समाज तक,
धर्म से , रिवाज तक.
कितनी सहन करती उपेक्षा,
फिर दिया अग्नि-परीक्षा.
मगर , वह तो जल गई,
आंसुओं के संग हीं,
अतीत में , बदल गई.
कैसे बच पाती भला वह -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.......














Thursday, February 16, 2012

एहसास




उम्र सत्रह पार कर ली,
तुमने इंटर पास कर ली,
यह पढाई छोड़ दो अब,
काम कोई खोज लो अब.
उस दिन पिताजी ने बुलाया,
विवश नेत्रों में बताया,
देखते हो घर की हालत,
कर्ज में डूबा है हर रत.

गाँव में तो कुछ नहीं है,
बाढ़, सुखा सब यहीं है.
तुम शहर की ओर देखो,
कुछ नगर के दाँव सीखो.
पिताजी कहते चले गए,
भाव में बहते चले गए.
सर झुकाए मौन था मैं,
कुछ न सुझा, कौन था मैं.

फिर मुझे माँ ने बुलाया,
आँखों से आँसू उतर आया.
क्या करें ,हम खुद हैं बेबस,
भाग्य पर न किसी का वश.
इस उम्र में सब खेलते हैं,
हँसी-ख़ुशी से डोलते हैं.
भगवन! ये क्या दिखाया तुने,
छाती लगाकर लगी रोने.

मैंने उसके आँसू पोंछे,
लाल थे, जो रक्त- भीचे.
जो हुआ, वह सब सही है,
आज न तो , कल यही है.
समझा- बुझाकर बाहर आया,
बाहर बहन को रोता पाया.
ख़ुशी , जिसकी नूर थी वह,
आज दुःख से, चूर थी वह.

अगले हीं दिन ,चल पड़ा घर से,
अपने शहर, अपने नगर से,
दूर अपनों की नज़र से,
स्नेह , ममता के असर से.
बढ़ चला , एक नयी डगर में,
घोर, निर्जन समंदर में ,
संघर्ष रुपी इस सफ़र में,
प्रौढ़ता के नए पहर में.

बचपन में ,लोगों का था कहना,
यह पुत्र है,इस घर का गहना.
एक दिन यही शिखर चढ़ेगा,
धन-धान्य से घर को भरेगा.
कितने पिताजी खुश हुए थे,
स्वप्न में खोये हुए थे.
माँ भी कितनी खुश हुई थी,
बात जब मेरी हुई थी.

एक दिन बड़ा अफसर बनूँगा,
मुट्ठी से, पैसे गिनूँगा.
मेरी इच्क्षा भी खड़ी थी,
बस प्रतीक्षा , की घडी थी.
पर आज मैं यह जान पाया,
मध्य - वर्गी की ये काया,
नीचे जमीं, ऊपर गगन है,
बस यही अपना चमन है.

कैसे बुझाऊँ ,धन की प्यास,
कैसे करूँ , इसका प्रयास,
बन गया जो, किसी की आश,
करता रहा, यही एहसास.......





Saturday, February 4, 2012

मैं तुम्हारी हूँ



मेरे  प्राणेश-
यह आखिरी शाम,
और वह भी ,बीत गयी.
तुम्हारी वह, खामोशी,
आज फिर से, जीत गयी.
कुछ भी तो मुझे न मिला,
न राधा का अभिमान,
न मीरा का सतीत्व.
फिर कैसे मिलता,
मेरे यौवन को व्यक्तित्व.
क्योंकि सागर की, बाहों में हीं,
नदी पाती है अस्तित्व.

काश! तुम समझ पाते,
मेरे जीवन की आश,
जैसे धरती और आकाश,
वही अधूरी प्यास,
तुम्हें पाने का एहसास.
शायद इसीलिए, अब तक,
चल रही थी साँस.

आज फिर वही तन्हाई है,
फर्क इतना- सा है,
कि तुम्हें मुझसे छुड़ाने,
स्वयं मौत चलकर आई है.
कैसे उसे समझाऊँ,
कि मैं एक विक्षिप्त हूँ.
तुम्हारी स्मृतियों के ,
अवसादों से लिप्त हूँ.
आज भी व्याकुल ,
विवश और, रिक्त हूँ.

करोड़ों सृष्टियाँ होंगी,
और करोड़ों जन्म.
यह आत्मा  ढुढ़ेगी,
जीवन  का मर्म.
मगर इसे मुक्ति न मिलेगी.
इस अधूरी आत्मा को,
कभी तृप्ति न मिलेगी.
क्योंकि मैं तुम्हारी हूँ,
सिर्फ तुम्हारी..........