Wednesday, April 3, 2013

लव....ब्रेकअप......जिंदगी..... पेज- 2

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जैसे-जैसे हम कैंटीन की ओर बढ़ते गए,मेरा दिल बैठता गया। हजारों अच्छे-बुरे खयाल एक साथ मस्तिष्क में उभरने लगे। ‘कौन होगी’से ज्यादा परेशान करने वाली बात थी कि वह कैसी होगी? क्योंकि किसी भी कॉलेज में 90 प्रतिशत लड़कियाँ ऐसी होती है, जिन्हें लड़के देखते तो हैं, मगर सभ्य नजरों से। निगाह में एक आदर होता है। उन्हें देखकर किसी का दिल धड़कनों पर दस्तक नहीं देता। ऐसी लड़कियाँ स्वय को रोज निखारती है। नए-नए मेकअप में नजर आती हैं। मगर कोई सीटियाँ नहीं बजाता। फैशनेबल ड्रेस पहने जब ये सभी कैंपस में दिखती हैं तो ऐसा लगता है मानो ब्रांडेड शराब की बोतल को पानी से भर दिया गया हो। जो चढ़े हुए नशे को भी उतार दे। उनमें कोई आकर्षण नहीं होता। हालांकि मैं सच्चे प्यार में विश्वास रखता हूँ। मेरे अनुसार किसी की चेहरे की खूबसूरती पर लट्टू हो जाना। यह कभी प्यार हो ही नहीं सकता। यह तो केवल इन्फैचुएशन मात्र होता है, जो दो-चार महीनों में समाप्त हो जाता है। फिर लोग नए चेहरे की तलाश में जुट जाते हैं। पुरानी रिलेशनशिप एक बोझ की तरह और गले में फाँसी के फंदे की तरह झूलती दिखाई देती है। जिससे भागना भी मुश्किल और झूलना भी मुश्किल। कॉलेज में उस टाईप की लड़कियों से जिनका भी नाम जुड़ जाता था, उनकी स्थिति उस बकरे की तरह हो जाती थी, जिसे जबरन बलि देने के लिए चढ़ा दिया जाता है। जबकि उस निरीह का कोई अपराध नहीं होता। कुछ सीनियर्स और क्लासमेट को इस मानसिक पीड़ा को झेलते हुए देखा है। कितनी आत्मग्लानि से भरा और क्षोभपूर्ण दृश्य होता है उनके लिए यह। इन सभी बातों की कल्पना मात्र से मेरा पूरा बदन सिहर उठा। यदि ऐसी कोई लड़की कैंटीन पर मिली तो ! कॉलेज में दिन बिताना भी मुश्किल हो जाएगा। 
हॉस्टल के कॉरीडोर से निकलकर जैसे ही हमने एकेडमिक ब्लॉक को पार किया। जान-में जान आई। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। कैंटीन के पास कोई भी लड़की नहीं थी।
‘मैंने कहा था न ! अभी यहाँ कोई लड्की नहीं होगी।‘ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
‘हाँ यार ! सात से ज्यादा समय हो गया। हमने आने में देर कर दी।‘ मोहित निराश होते हुए बोला। उसके चेहरे से उसकी असफलता स्पष्ट झलक रही थी। मुझे वह ऐसा लगा जैसे उसे किसी युद्ध में बहुत बड़ी हार का सामना करना पड़ा हो और उसके सारे साथी भी मारे गए हो। खैर मेरे लिए तो यह समय जीत की गर्व से झूमने का था।  हाँ यह अलग बात थी कि इस जीत में मुझसे ज्यादा मेरी किस्मत का योगदान था। हम सभी वापस हॉस्टल की ओर चल पड़े।
‘यदि कोई लड़की होती, तो क्या सचमुच प्रोपोज कर देते?’ वैभव मेरी तरफ देखते हुए अचरज भरे स्वर में बोला। मुझे उसके स्वर में अचरज से ज्यादा उत्सुकता दिखाई दी।
‘तुम्हें क्या लगता है? मैं सीरियस था।‘
‘मगर फिर भी ! मेरा मतलब तुम! किसी को प्रोपोज कर दो।‘ दिनेश भी बोल पड़ा।
‘मैंने जबान दी थी। तुम सभी को पता है। मैं कुछ भी कर सकता हूँ वादा पूरा करने के लिए।‘ मैंने उग्र होते हुए कहा। अधिकांशतः मैं अपने वादे पूरी करता था। मगर जबान देने वाली बात, मैंने कुछ ज्यादा ही फेंक दिया। और जैसा कि अक्सर होता है जब आप खुद को सर्वश्रेष्ट साबित करने में लगे होते है, तभी किस्मत आपके साथ एक ऐसा चाल चलती है कि आप चारों खाने चित्त हो जाते है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। अभी हम दस कदम ही आगे बढे थे कि दिनेश बोल पड़ा –
‘That’s your target. हजारों दिलों की धड़कन।‘ इतना कहते हुए उसने मुझे पीछे मोड लिया।
मैं स्तब्ध था। It was Shruti. कॉलेज के हर दूसरे लड़के की अधूरी ख्वाइश। दूसरा इसलिए क्योंकि कुछ ऐसे भी होते है, जो चाँद को दूर से देख भर संतोष कर लेते हैं और अपनी ख्वाइशों पर लगाम लगा लेते हैं। मैंने सुना भी है। असमर्थ व्यक्ति को सबसे ज्यादा संतोष होता है। वह नीले सूट में थी। बालों में एक छोटा-सा क्लिप। जो मुझे नहीं लगता कि बालों को संभालने के लिए था। कंधे से लटकता दुपट्टा हवा में तैर रहा था और धरती को चूम रहा था। मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि लड़कियों के दुपट्टे इतने बड़े क्यों होते हैं? जहां जाती हैं, अपने साथ पूरे फर्श को भी समेटती जाती हैं। इससे पहले भी मैंने उसे हजारों बार देखा था। क्लास में, कॉरीडोर में, कैंपस में। मगर आज तक मैंने कभी उसे नोटिस नहीं किया था। मगर आज चाहकर भी उसे इग्नोर नहीं कर सकता था।
‘क्या हॉट आईटम मिली है प्रोपोज करने के लिए? आगे का फासला तुम्हें अकेले ही तय करना पड़ेगा।’ मोहित मेरे कंधे पर हाथ रखकर, लगभग उछलते हुए बोला। उसने मुझे आगे की ओर धक्का दे दिया।
एक बार मैंने पूरी स्थिति का जायजा लिया। आस-पास कितने लोग हैं? मुझे कोई नहीं दिखा। मेरा मस्तिष्क शिथिल हो चुका था। इसलिए आंखे भी धोखा देती प्रतीत हो रही थी। एक बार फिर मैंने चारों तरफ दृष्टि घुमाई। पार्क में कुछ लड़के बैठे नजर आए। शायद एम॰ टेक॰ के थे। तभी मैं उन्हें पहचान नहीं पाया था। कुछ ही दूरी पर एक कुत्ता क्रिकेट पिच की बगल की घास पर लेटा था। बिल्कूल निस्पंद। मानो किसी समाधि में लीन हो। मुझे लगा कि वह अपने किसी पुराने साथी को याद कर रहा था। कौन सा साथी? यह बताना मुश्किल था। क्योंकि उनके एक-दो साथी तो होते नहीं। श्रुति अभी-भी कैंटीन की खिड़की पर जमी थी। चूंकि मैं दूसरी तरफ से आ रहा था। इसलिए श्रुति मुझे देख नहीं सकती थी। ऐसे भी, मुझे वह कैंटीन वाले के साथ कुछ ज्यादा ही व्यस्त नजर आई। अभी मुझे श्रुति पर इतना गुस्सा आ रहा था कि क्या बताऊँ? इतनी रात को कैंटीन आने की क्या जरूरत पड़ गई?और वह भी अकेले। ऐसे ही लड़कियां नियम-कानुन ताक पर रखकर खुद को सशक्त साबित करने में लगी रहती है। और जब कोई बलात्कार या छेड़-छाड़ जैसी घटना हो जाती है तो बेकार का बवंडर खड़ा कर देती हैं। मैं पूछता हूँ कि ये उकसाती ही क्यों हैं? और अगर उकसाती है तो फिर चीख-पुकार क्यों मचाती हैं? पुरुष प्रधान समाज की छाया मुझपर हावी हो गई थी। मेरे और श्रुति के बीच मुश्किल से बीस फीट ( ज्यादा या कम भी हो सकता है क्योंकि मेरा पूर्वानुमान बहुत ही कमजोर है) का फासला रह गया होगा। तभी मुझे बगल की दीवार के पास से एक आवाज सुनाई दी।
‘हरी अप श्रुति !’
‘यस मैम।‘ श्रुति हड़बड़ाते हुए बोली।
मैम ! श्रुति के इस उत्तर से मैं ठिठक गया। पाँव जहां थे, वहीं जम गए। हमारे अलावा यहाँ कोई मैम भी हैं। और मैं इसे प्रोपोज करने के लिए आया हूँ। मैं बिल्कुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। आगे बढ़ूँ या पीछे लौट चलूँ। मगर कुछ भी न कर पाया। शायद मस्तिष्क और पैरों के बीच का तादात्म्य टूट गया था या पैर अपनी मनमानी पर उतर आए थे। इसी उधेड्बुन में मैं फंसा ही था कि श्रुति दौड़ती हुई गर्ल्स हॉस्टल की ओर चली गई। उसके बाल हवा में तैर रहे थी और दुपट्टा आसमान को अपनी बाँहों में लिए था। मैं उसे तब तक देखता रहा, जब तक कि वह मेरी आँखों से ओझल न हो गई।
करीब नौ बजे हमारा डिनर होता था। डिनर के बाद मैं अपने कमरे में लेटा था। तभी मुझे भगदड़ सुनाई दी। अभी मैं कुछ सोच पाता कि मोहित और दिनेश कमरे में आ घुसे।
‘हमारी शर्त अभी पूरी नहीं हुई।‘ मोहित मेरी बगल में आकर बैठते हुए बोला।
‘तुम्हारी शर्त के चक्कर में मैं रस्टीकेट या सस्पेंड हो गया होता। अभी अगर हॉस्टल वार्डेन ने मुझे वहाँ प्रोपोज करते हुए देख लिया होता तो ! मैं गुस्से से बोला।
‘ मगर शर्त तो तुमने खुद तय किया था।‘ कोई हम तुम्हें पकड़कर थोड़े ही ले गए थे।‘ मोहित मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोला।
‘ अब कोई शर्त नहीं! पहले ही काफी समय तुम्हारे फालतू शर्त में खराब किया।‘ मैंने उसका हाथ झटकते हुए कहा।
‘तो हम क्या समझे? You are over.’
‘ऐसा मैंने कब कहा?'
‘Then do it now. हमने फेसबूक से उसका न॰ निकाल लिया है। तुम्हें कॉल पर ही उसे प्रोपोज करना पड़ेगा।‘ मोहित ने अपनी मोबाइल की ओर इशारा करते हुए कहा।
यह फेसबूक भी इन्हीं बकवास चीजों के लिए बनी है। आप चाहो या न चाहों, आपके पर्सनल इन्फोर्मेशन तक लीक हो जाते हैं। आपको अपना बर्थडे भले ही न याद हो मगर आपके फ्रेंड्स के पास नोटिफिकेशन पहुँच जाएगा। और हॉस्टल के रिवाज के अनुसार, जिसका भी बर्थडे होता था, सारे बच्चे मिलकर लातों और घूंसों से उसकी खबर लेते थे। बर्थडे ब्वाय बेचारा कराहता रहता था मगर कोई उसकी सुने तब न ! आखिर पीटने वालों को भी पता होता था की उनकी बर्थडे भी तो ऐसी ही बीती थी। मैं कभी गाली नहीं देता मगर मुझे जो कुछ भी बुरे शब्द पता थे। मन-ही-मन फेसबूक को मैंने खूब कोसा। मेरी इस चुप्पी को मोहित ने न-जाने क्या समझा। उसने झटपट कॉल लगा दिया और साथ-ही-साथ स्पीकर भी ऑन कर दिया। रिंग जाने लगी। दो-तीन रिंग के बाद ही उधर से आवाज आई।
‘हैलो! कौन?’
पल भर के लिए तो मैं बिलकुल सुन्न पड़ गया। मोहित और दिनेश मुझे इशारा करने लगे- यार! कुछ तो बोल !
‘कौन ? श्रुति !’
‘हाँ। आप कौन?’
‘ यदि मैं कहूँ कि मैं आपको पसंद करता हूँ and I LOVE YOU.’ मैं इस तरह की परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ था। न तो किसी के साथ पहले मेरा कोई अफेयर था न ही किसी लड़की को किस तरह से प्रोपोज करते है। इसका कोई अनुभव। इसलिए मैं डायरेक्ट प्वाइंट पर आ गया। जो मेरी शर्त का हिस्सा थी।
‘ मगर आप हैं कौन?’
‘बिना जाने क्या आप अपना जवाब नहीं देंगी?’
‘ ऐसे तो कोई भी जवाब नहीं दे सकता।'
‘आप हसीन है, खूबसूरत हैं। और आपके दीवानों की लंबी फेहरिस्त है। समझ लीजिये कि आपके सैकड़ों चाहने वालों में से एक मैं भी हूँ।' शर्त पूरी हो चुकी थी। मगर मैं अपनी जिज्ञासा और उतावलेपन को रोक नहीं पा रहा था।
‘ किसने कहा कि मैं खूबसूरत हूँ।'
‘ खूबसूरती तो आँखों में बसती है। बस देखने वालों की नजर होनी चाहिए। मैं आपके आस-पास का ही हिस्सा हूँ।' मैंने अपने परिचय से उसे उलझाने की कोशिश की।
‘मुझे पता चल गया कि आप कौन है। पूरे कॉलेज में इस तरह की लैंगवेज़ और कोई बोल ही नहीं सकता।'
मैं हतप्रभ था। उसने मुझे पहचान कैस लिया? वह भी इतनी जल्दी। फिर मुझे ध्यान आया। मैंने कुछ सायराना खयाल रखे थे। बातें भी मैंने कृष्ठ हिन्दी में की थी और पूरी क्लास को मालूम था कि मुझे कविताओं और गज़लों का शौक है। मुझे हिन्दी से कितनी रुचि है? यह बात मुझे पहले क्यों नहीं समझ में आई? घबराहट और असमंजस की स्थिति में मेरे माथे से ठंढे पसीने निकल आए।
‘ यदि पता चल ही गया है तो मैं बता दूँ कि न तो मैं कोई दीवाना हूँ और न ही मुझे किसी से प्यार हुआ है।' इतना कहते हुए मैंने कॉल काट दी।
अगले दिन फर्स्ट पीरियड इंजीनियरिंग मेकेनिक्स की थी। मैं पहले ही पाँच मिनट लेट था। लेट तो मैं रोज ही होता था मगर वह लेक्चर आर॰ के॰ गुप्ता सर का होता था। गिने-चुने प्रोफेसरों में से वे थे, जिन्हें कुछ आता था हमारे सबजेक्ट्स के बारे में। उनके क्लास में आते ही एक आतंक-सा सभी के चेहरे पर दिखने लगता। वे आते ही प्रश्नों की झरी लगा देते। गनीमत तो तब हो जाती जब एक ही प्रश्न के लिए पूरी क्लास को खड़ा कर दिया जाता। यदि उत्तर, उनके उत्तर से जरा सा भी अलग होता तो भी वे उसे गलत समझते थे। जिन्हें उस टॉपिक का कुछ भी न पता हो, उनके लिए तो अग्नि-परीक्षा जैसी घड़ी होती थी। क्योंकि उनक सख्त निर्देश था कि कुछ-न-कुछ बोलना है। यदि कोई कह देता - मुझे नहीं मालूम। उनकी तरफ से एक ही आवाज गूँजती – pickup your bag and get out from the class. वह शर्मसार चेहरा लिए बाहर कर दिया जाता। एक तो सुबह-सुबह बच्चे ‘अटेंडेंस के भूखे’ क्लास में पहुँचते थे। वहाँ भी वे बाहर निकाल दिए जाते थे। कभी-कभी तो यह स्थिति लेक्चर के अंतिम दो-चार मिनट रहते भी घटित होती थी। बच्चे बाहर आकर उन्हें न-जाने कैसी-कैसी गालिया देते थे। एक और खास बात थी उनमें। लेट आने वालों को कब तक एंट्री देनी है? इसके लिए भी उन्होने माइंड सेटअप कर रखा था। यदि कोई पाँच मिनट लेट होता तो उसे बिना कुछ पुछे ही एंट्री मिल जाती थी। यदि कोई इससे ज्यादा लेट होता तो उसपर प्रश्नों की बौछार गिर पड़ती थी – क्यों, कैसे, कहाँ वगैरह-वगैरह। इतना कि आप झूठ बोलते-बोलते भी थक जाएँ। और यदि कोई ग्यारहवे मिनट में भी पहुँचता तो उसे एक ही उत्तर मिलता – come in next class.
मैं तेज कदमों से मेकैनिकल ब्लॉक की ओर बढ़ा। जैसे ही मैं अंदर पहुँचा, मैंने देखा – श्रुति और निशा भी तेज कदमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ रही थी। हमारी क्लास तीसरी मंजिल पर होती थी। लड़कियों में भी ग्रुपिज़्म होता है। लड़कों से कहीं ज्यादा। एक ग्रुप की लड़कियां दूसरे ग्रुप से कम-ही बात करती नजर आती थी। अब वे दोनों किस ग्रुप का हिस्सा थीं। यह तो बताना मुश्किल है। मगर श्रुति और निशा हमेशा साथ-साथ ही दिखती थी। श्रुति को देखते ही रात की घटनाओं की पुनरावृति मस्तिष्क में उभर आई। अचानक एक अपराधबोध मेरे अंदर-ही मेरे सामने आ खड़ा हुआ। वह मेरी शालीनता से उलझ पड़ा। वह मुझे धिक्कारने लगा। मैं तर्क और दलीलों में माहिर हूँ। मगर मेरा यह भी मानना है – तर्क का संबंध बुद्धि से है जबकि ज्ञान का संबंध विवेक से। हम तर्क से अपनी गलतियों को भी सही साबित कर सकते हैं, मगर इससे, हृदय पश्चाताप के बोझ से मुक्त नहीं होता। मन में आया कि अभी-ही सच्चाई बता दूँ। फिर सोचा- जब उसे मालूम ही है तो फिर क्या बताना ! इन्हीं उत्कंठाओं से घिरा मैं उनके पीछे- पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सीढ़ियों पर बढ़ता मेरा हर कदम मुझे उद्विग्न कर रहा था। जब वे दोनों पहली मंजिल पर पहुंची और आगे बढ़ना ही चाहती थीं। तभी मैंने आवाज दी।
‘श्रुति !’ आवाज सुनकर दोनों रुक गई। नहीं तो ज़्यादातर एक आवाज में ये रुकती कहाँ हैं? बाकी सीढ़ियों का फासला मैंने तेजी से तय किया।
‘आई एम सॉरी।'
‘सॉरी फॉर व्हाट।' वह आश्चर्य से बोली। जैसे उसे कुछ पता ही न हो।
‘कल वह कॉल मैंने ही किया था।' मैंने निर्भीक भाव से कहा। मेरी आवाज में संकोच और असमंजस साथ-साथ घुले थे।
‘ श्रुति ! मैं चलती हूँ।' यह कहते हुए निशा आगे बढ़ गई।
मुझे समझ नहीं आया। निशा ने ऐसा क्यों कहा। मैं कोई प्राइवेट टॉक तो नहीं करने आया था। क्योंकि मैंने सुना था कि ऐसे समय में सहेलियाँ लड़की को अकेला छोड़ देती हैं। मगर यहाँ तो ! श्रुति ने निशा को कुछ नहीं कहा। बस उसे जाते हुए देखती रही। मुझे ऐसा लगा मानो उसे रुकने को कह रही थी। अब हम दोनों वहाँ अकेले रह गए थे। सबसे आश्चर्यजनक बात मुझे यह लगी कि कॉल वाली बात बताने पर भी श्रुति के चेहरे पर मुझे कोई भाव नजर नहीं आए। मेरी उस हरकत से वह दुखी थी, नाराज थी, खुश थी। कुछ भी समझ न आया। एक अजीब-सी खामोशी उसके चेहरे पर थी।
‘ फ्रेंड्स ने चैलेंज कर दिया था कि मैं किसी लड़की को प्रोपोज कर सकता हूँ या नहीं......’ खामोशी को चीरते हुए मैंने कहा। अंतिम शब्द म्रेरी हलफ से निकल नहीं पाए। उसने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा मानो मुझे अचल बना देना चाहती हो। और फिर बिना कुछ कहे सीढ़ियों पर आगे बढ़ गई। मैं बता नहीं सकता मुझे कितना गुस्सा आया। ऐसा क्या कर दिया। प्रोपोज ही तो किया है। कोई रेप थोड़े ही कर दिया है। एक तो मैं किसी से माफी नहीं मांगता था और वह भी किसी लड़की से ! वह तो मुझे लगा था कि मैं गलत हूँ। बस इसीलिए ! कौन-सी ये सभी सती-सावित्री हैं। इतने लड़के जब इनपर कमेन्ट पास करते हैं, तब तो ये सभी मुस्कुराते हुए निकलती हैं। जैसे सभी इन्हें कंप्लीमेंट दे रहे हो। कॉलेज के फ़ेस्ट या किसी कल्चरल इवेंट में तो कैंपस को रैम्प शो ही बना देती है। इतना परफ्यूम लगाती हैं कि तीन row बाद बैठे लोगों को भी पता चल जाता है कि कौन सा ब्रांड यूज किया है। और अभी मैंने माफी क्या माँगी, खुद को देवी समझ बैठी। कुछ देर तक तो मैं वहीं खड़ा रहा। फिर क्लास की ओर चल पड़ा। जैसे-ही ऊपर पहुँचा। मुझे गुप्ता सर की आवाज सुनाई दी।
‘come in next class.’
मैं समझ गया कि श्रुति भी उनके दस मिनट के माइंड सेटअप से पीछे रही होगी। गुप्ता सर की यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगती थी। वे लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं करते थे। पनिशमेंट के भी पैमाने नहीं बदलते थे। लड़कियों के लिए भी नहीं। खूबसूरत लड़कियों के लिए भी नहीं। वरना कुछ प्रोफेसर्स तो इतने ठरकी होते थे कि लड़की को देखते- ही अपने सारे निश्चय बदल लेते। यदि लड़की खूबसूरत हुई तब तो उसकी चापलूसी पर भी उतर आते। इस तरह के फायदे लड़कियों को हमेशा ही मिलते थे। वे अपनी मार्क्स भी बड़ी आसानी से बढ़वा लेती। viva वगैरह में तो प्रोफेसर्स उनसे पुछकर ही कोई प्रश्न पुछते थे। मैंने तो यहाँ तक सुना था कि इंटरविऊ में भी खूबसूरत लड़कियों से कुछ नहीं पूछा जाता। पता नहीं वहाँ जाकर कौन- सा मोहिनी मंत्र चलाती हैं? यह तो उन्हें ही पता होगा। खैर ! मैंने क्लास के दरवाजे तक भी जाने की कोशिश नहीं की। वही सीढ़ियों पर बैठ गया। श्रुति कुछ देर तक तो दरवाजे के बगल में ही दीवार से पीठ अड़ाए खड़ी रही। फिर धीर-धीरे कदमों से मेरी तरफ आई।
‘ तुम्हारी हिन्दी कितनी इम्प्रेशिव है?’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।
मुझे उसकी मुस्कुराहट में एक अजीब-सी कुटिलता नजर आई। मन में आया कि अभी एक तमाचा जड़ दूँ। अभी तो मुझे ऐसे देख रही थी, मानो मुझे कच्चा चबा जाएगी। और अब !
‘ हाँ ! मैंने बारहवीं में हिन्दी ले रखी थी।' मैंने अनमने भाव से बिना उसकी तरफ देखे ही उत्तर दिया। हालांकि मेरी अच्छी हिन्दी होने में उसका कोई यागदान नहीं था।
‘वह तो मैंने भी ली थी?' उसने दुबारा प्रश्न दोहराया।
‘मैंने अपनी पॉकेटमनी के ज्यादा हिस्से हिन्दी मैगजीन, नोवेल्स को खरीदने में लगाया है। कोई तुम्हारी तरह कॉस्मेटिक्स, मेकअप और टेडिवियर खरीदने में नहीं।' मगर मैंने ऐसा नहीं कहा। बस यही कह पाया -
‘स्कूल की लाइब्रेरी में काफी बुक्स थीं। और पढ़ने में मेरा काफी इंटरेस्ट था।' मैं अभी ऐसे वार्तालाप के मूड में नहीं था। इसलिए मैंने विषय को परिवर्तित करते हुए कहा –
‘अभी लेक्चर खत्म होने में तीस मिनट रह रहे हैं।'
‘Should we go for a coffee?’ अभी तो काफी समय है।‘ उसके इस शब्द में अनुरोध से ज्यादा आदेश भरा था। लड़कियों का दिमाग कैसे काम करता है? यह मुझे समझ में नहीं आता। कुछ देर पहले मुझे ऐसी उपेक्षित नजरों से देख रही थी मानो मैंने कोई अक्षम्य अपराध किया हो। और अभी अचानक कॉफी पीने की बात। मगर मैं खुद को रोक नहीं पाया। जबकि मुझे पता था कि इस कॉफी का बिल तो मुझे ही देना पड़ेगा। हम दोनों ब्वायज हॉस्टल की कैंटीन की तरफ चल पड़े।
कभी- कभी समय का चक्र इतनी तेजी से घूमता है कि आप समझ नहीं पाते कि आपके साथ क्या हो रहा है? कल तक मैं लड़कियों से कोसों दूर रहता था। उनके गतिविधियों में मुझे केवल दिखावापन नजर आता था। कैसे वे लड़कों को फँसाती है? एक-साथ न जाने कितनों को उलझाए रखती हैं और हाथ किसी के भी नहीं आती। ऐसी कितनी ही बातें! और आज खुद, एक लड़की के साथ कैंटीन में कॉफी ! मुझमें यह अचानक परिवर्तन क्यों हुआ, कैसे हुआ। यह मेरी समझ से परे था।
‘ मैं यहाँ कम-ही आती हूँ। मगर यहाँ की कॉफी मुझे पसंद है।' श्रुति अपने बालों को संवारते हुए बोली।
‘रोज ही आ जाया करो। तुम्हें देखकर कितनों का दिल भी बहल जाएगा।' मन में आया कि ऐसा कहूँ। मगर नहीं कहा।
स्वभाव से ही मैं अंतर्मुखी हूँ। नए लोगों से बातें कैसे शुरू करें। मुझे समझ नहीं आता। कुछ क्लोज दोस्तों को छोडकर मैं बहुत कम-ही मिल-जुल पाता हूँ। अपने घर पर भी मैं कम ही बात-चीत करता हूँ। कुछ लोगों को मैंने देखा है। बड़ी जल्दी वे संपर्क बना लेते हैं। उन्हें बाते करते देखकर ऐसा लगता है जैसे वर्षों से उनकी जान-पहचान हो। यह किसी आर्ट से कम नहीं। मैं यह कला कभी नहीं सीख पाया।
‘मुझे तो उसी समय पता चल गया था कि वह कॉल तुमने किया है। लेकिन मैं स्तब्ध थी। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मेरा मतलब ! तुम कभी ऐसा नहीं कर सकते।' उसने मेरी चुप्पी को नजरंदाज करते हुए कहा। किस तरह के विश्वास की बात कर रही थी वह? यह बताना मुश्किल था।
‘ हैरान तो मैं भी हूँ।'
‘ लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई। मुझे ही क्यों चुना?’ उसके चेहरे पर विस्मय और जिज्ञासा की झलक मुझे स्पष्ट दिखाई दी। लड़कियों में यह कॉमन होता है। वे खुद के बारे में सुनना बेहद पसंद करती थी। शायद वह जानना चाहती थी कि लड़कों के बीच उसका कैसा क्रेज है? और कौन-कौन सी लड़कियां हैं, जो इस दौर में उसकी प्रतिद्वंदी हैं? किन-किन पर चर्चाएँ होती है? मैंने पूरी घटना यथावत सुना दी।
उस तीस मिनट में हमारे बीच बहुत-सी बातें हुई। मैं तो केवल सुनता ही रहा। उस दिन मुझे पता चला। गर्ल्स हॉस्टल की स्थिति तो और भी खराब है। एक कमरा तीन स्टूडेंट्स के लिए अलॉट होता है। मगर वार्डेन उसमें चार-चार लड़कियों को एडजस्ट कराते हैं। कभी-कभी तो यह संख्या पाँच भी हो जाती है। उसी तीन आलमारी को सभी मिलकर शेयर करती हैं। सर्दियों में हीटर तक यूज करने नहीं देते। वार्डेन ने उनके सौ से ज्यादा हीटर छीनकर जमा कर रखे हैं। मेस में चम्मच तक नहीं देते। कभी- कभी तो थाली भी खुद ही लाना पड़ता है। अब भी सीनियरिटी और रैगिंग काफी ज्यादा है। पिछले साल तो एक लड़की के कपड़े तक उतरवा दिए थे। लड़कियाँ भी इतनी आक्रामक होती हैं। यह बात भी पता चली।
 
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