Saturday, May 26, 2012

कश्मे-कश


कश्मे-कश में हूँ , तुम्हें सुनाऊँ भी तो कैसे ,
जख्म जो दिल पर लगे, दिखाऊँ भी तो कैसे ?

कहाँ तुम चंचल नदी , और मैं वीरान सागर,
तुम मेरे स्वप्नों की आभा , और मैं यायावर,
फिर हसीन ख्वाब मैं , सजाऊँ  भी तो कैसे ,
इस आग -पानी को भला , मिलाऊँ भी तो कैसे?

वह हवा जो रोज , मेरे कमरे में आती है,
तुम्हारें बदन को छूकर , मुझसे लिपट जाती है .
उस महक को  , दामन से मिटाऊँ भी तो कैसे ,
तन्हाइयों की रात यह, बिताऊँ भी तो कैसे ?

तुम कली हो , हुस्न की दुनिया दीवानी है,
हर किसी को यहाँ , किस्मत आजमानी है,
इस भीड़ में फिर, अपना हक़ जताऊँ भी तो कैसे ,
जो है मेरी आँखों में, बताऊँ भी तो कैसे ?

कभी जो देखता हूँ मैं , तुम्हें गैरों की बाहों में,
शूल -सी चुभ उठती है कुछ, मेरी इन निगाहों में,
तुम ही कहो चुप-चाप फिर रह पाऊँ भी तो कैसे,
दर्द की यह दास्ताँ , कह पाऊँ भी तो कैसे?

इक निराशा , इस ह्रदय को चीर देती है,
हर राँझे  से दूर , उसकी हीर होती है,
फिर ख़याल आता है, मर जाऊँ  भी तो कैसे,
बदनाम अपनी उल्फत को, कर जाऊँ भी तो कैसे........?