Thursday, May 30, 2013

लव...ब्रेकअप.....जिंदगी.......पेज - 3

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 जैसे कि अमूमन मैंने फिल्मों और कहानियों में इंजीनियरिंग कॉलेजों के बारे में पढ़ा था। रोमांस और रिलेशनशिप में डूबे यंगस्टर्स। मगर मुझे नहीं लगता कि कहानियों में दिखाया गया यह दृश्य इतना वास्तविक होता होगा, क्योंकि हमारे कॉलेज में तो ऐसे किस्से न के बराबर थे। यदि कुछ लोग रिलेशनशिप में बंधे भी थे तो मुझे नहीं लगता कि उन्होने उसे आखिरी अंजाम यानि सेक्सुअल रिलेशन तक पहुंचाया होगा। मैं यह नहीं मानता कि सभी रिलेशनशिप का मकसद यही होता है लेकिन ह्यूमन स्वभाव को समझने पर यह बात बिलकुल स्पष्ट हो चुकी है कि पुरुष सेक्स के लिए प्यार करते हैं जबकि महिलाएँ प्यार के लिए सेक्स करती हैं। कहानियों जैसा यहाँ कुछ भी नहीं था। लड़कियां यहाँ किसी साधक से कम नहीं होती थी, जो ऐसे माहौल में भी खुद को इतनी नियंत्रित रखती थी। वे अपना कौमार्य इस तरह आसानी-से किसी पर न्योछावर नहीं किया करती थी। लड़के अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति  पॉर्न वीडियों या ब्लू फिल्में देखकर पूरी करते थे। वास्तविक जिंदगी में उनके लिए यह किसी ख्वाब से कम नहीं था। तभी तो ऐसी फिल्मों को देखने कि लिए हॉस्टल में पूरी भीड़ उमड़ पड़ती थी। जहाँ तक लड़कियों का सवाल है, उन्होने भी इस समस्या के समाधान का कोई-न-कोई रास्ता जरूर ढूंढ लिया होगा। क्योंकि कोई दिमाग को नियंत्रित कर भी ले, परंतु शरीर की भी तो एक आवश्यकता होती है। प्रकृतिक मनोदशा और बढ़ते हॉरमोन के एहसास से बचना इतना आसान कहाँ। कुछ भी कहें मगर, लड़को के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करना किसी यातना से कम नहीं होता था।  ऐसे वातावरण में आप किसी लड़की से मिलें, उसके साथ कॉफी पिएँ और किसी को इसकी खबर न हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। शाम होते होते यह खबर आग की तरह फैल गई। पूरे हॉस्टल में चर्चा का विषय बना रहा। न – जाने मुझे कितने इंटरविऊ फेश करने पड़े! जो बात उन्हें सबसे ज्यादा खाए जा रही थी कि मैं कैसे किसी लड़की के साथ हो सकता हूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे जो श्रुति पर फिदा थे, उन्होने तो मुझे अपना प्रतिद्वंदी समझ लिया। उन्होने अपनी उस रेस में मुझे भी शामिल कर लिया, जिसका हिस्सा न – तो मैं कभी था और न ही कभी बनना चाहता था।
हालांकि मैं नियंत्रित हूँ, स्वभाव से संजीदा हूँ मगर कहते हैं न कि पुरुष कितने भी नियंत्रित और संयमी क्यों न हो? उनमें एक उतावलापन और उच्छृखलता सदैव विद्यमान होती है। चाहे उन पर  कितने भी संस्कारों और सभ्यताओं का बोझ क्यों न लदा हो, वे अपनी  नैसर्गिक मनोस्थिति को बदल नहीं कर सकते। दिन भर की उस रहस्मयी और विस्मयपूर्ण घटनाओं को अपने मस्तिष्क की स्नायुतंत्रों में समेटता हुआ जब मैं अपने बिस्तर पर पहुँचा, तो मेरे असमंजस की इस घड़ी में एक नयी कड़ी मानो मेरा इंतजार कर रही थी। मेरे मोबाइल में एक अननोन नंबर से एक मेसेज दिख रहा था। उत्सुकता और कौतूहल से मैंने मेसेज पढ़ा। मेरी आँखों में विस्मय, स्तब्धता के साथ- साथ हल्की खुशी के मंजर लरजने लगे। क्या करता मेसेज ही कुछ ऐसा था, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था –
“ loved the coffee and time spent with you……………………………………… Shruti.”
मैंने उस मेसेज को एक बार पढ़ा दो बार पढ़ा फिर पढ़ता ही गया। एक – एक अक्षर को मैंने महसूस करने की कोशिश की। उनमें छुपे मनोभावों को अपनी कल्पना की शिल्पकला से एक मूर्ति रूप देने लगा। पंक्तियों के अंत में और उसके नाम से पहले जो बिन्दु चिन्ह थे, उनकी भी मैंने पूरी –पूरी गिनती की। वे मुझे वास्तविक धरातल और स्वप्नों की इंद्रधनुषी कतारों के बीच, सीढी की तरह प्रतीत हुए। क्षण भर में वे, मुझे वहाँ ले गए, जहाँ आप भौतिक परिवेश से ऊपर उठ जाते है। आपके और संसार के बीच का तादात्म्य टूट जाता है। क्या नैतिक है और क्या व्यवहारिक? इन सभी प्रश्नों का कोई भय नहीं होता। सामाजिक ज्ञान के सभी चक्षु बंद हो जाते हैं। मन की प्रफुल्लता आपको अपने अतीत के बोध और भविष्य के पश्चाताप से मुक्त कर देती है। आप सिर्फ और सिर्फ वर्तमान की आगोश में होते है और फिर आप स्वय को हृदय की अनुभूतियों में विलीन कर लेते हैं।
कुछ समय तक इस असीम एहसास को खुद में समेटने के बाद मैंने प्रतिउत्तर में मेसेज लिखने की कोशिश की। अनगिनत शब्द और अनगिनत भाव। मोबाइल की स्क्रीन पर मैंने अंकित किए। मगर सब बेकार। ऐसा लग रहा था मानो वे सभी अपने-आप में अधूरे थे या उन पाँच शब्दों की बराबरी करने का साहस उनमें नहीं था। मेरा सारा साहित्यिक ज्ञान भी मुझे प्रेरित नहीं कर पाया और अंत में काफी जद्दोजहद के बाद मैं केवल इतना ही लिख पाया –
“ Me too………………………..’’
जब तक आप स्वप्नों के अलंकृत महल में होते हैं, आप वास्तविक परिदृश्यों को देख नहीं पाते। मगर मस्तिष्क निरंतर उसी अर्धचेतन अवस्था में तो नहीं रह सकता। वह पुनः अपनी चेतना में लौट आता है। वापस लौटते ही उसने मुझे घटना के दूसरे पहलू से अवगत कराया। यह अक्सर होता था कि फ्रेंड्स किसी का मज़ाक उड़ाने के लिए किसी लड़की के नाम से उसे मेसेज कर देते थे। यदि वह रिप्लाई करता था, तो बाद में उसकी खूब खिंचाई होती थी। मेरे साथ पहले कभी ऐसा हुआ नहीं था। मगर आज दिन भर जो हवा चली थी, किसी ने मुझे भी आजमाने की कोशिश की हो। यह भी तो हो सकता था। कुछ देर पहले दिल प्रेम और उल्लास के सागर में गोते लगा रहा था, मगर हकीकत की परछाई का एहसास होते ही सारा प्रेम काफ़ुर हो गया। मैंने तुरंत फेसबुक लॉग इन किया और श्रुति के प्रोफ़ाइल को चेक करने लगा। मगर आश्चर्य, वहाँ तो कोई भी मोबाइल नंबर नहीं था। इसका मतलब था मोहित ने मुझसे झूठ बोला था कि उसने फेसबुक से श्रुति का नम्बर लिया था। मैंने उस दिन डॉयल किए गए नम्बर को याद करने की बहुत कोशिश की मगर सब बेकार। उस दिन मैंने ध्यान ही कहाँ दिया था। मुझे विश्वास हो गया यह हमारे ही दोस्तों की चाल थी। मेसेज भेजने की। मैंने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया। क्योंकि पता नहीं अब वे लोग क्या- क्या लिखकर भेजते!
अगले दिन शनिवार था। कॉलेज ऑफ होता था। ज़्यादातर लोग मूवीज देखने निकल जाते थे। जो कहीं नहीं जा पाते थे, वे बस हॉस्टल के कमरों में चक्कर काटते नजर आते थे। मेस में जाने के अलावा बाकी समय कार्ड खेलने बीत जाता। शाम में कुछ लोग क्रिकेट भी खेलते लेकिन पूरा दिन बोरिंग ही गुजरता। और दिन तो पाँच बजे तक क्लास होती थी। न चाहते हुए भी सारा समय निकालना पड़ता था। बंक करने पर मजा ज्यादा आता। मगर शनिवार और रविवार यूं ही बेकार गुजरते थे। कुछ खास करने के लिए होता भी नहीं था। खास से याद आया- बी॰ टेक॰ में एडमिशन लेते समय आइंस्टीन या न्यूटन बनने का या फिर कुछ नया इन्वेण्ट करने का, हमने कोई संकल्प तो लिया नहीं था, जो छुट्टी वाले दिन कुछ नया ढूँढने में लग जाते। हाँ कुछ लोग नया ढूंढते थे, जैसे कोई नयी "मिस कॉलेज" जो अभी तक नजरों से ओझल रही हो। उसके फिगर, लुक्स और अदाओं पर शोध किया जाता। या फिर उसके लिए सभी अपनी- अपनी बीड डालते कि वो अब मेरी है, मानो उसकी नीलामी हो रही हो। यह चलन सामान्य था। जैसे वर्षों से यही होता आया हो। मुझे तो लगता है, यह बात सच भी है। जबसे सृष्टि बनी है, पुरुष, स्त्री को समझने की ही कोशिश कर रहे हैं। मगर इस वैज्ञानिक युग में पहुँचकर भी उन्हें सफलता नहीं मिली है।
मैं उस दिन बाहर नहीं निकला। कारण स्पष्ट था – पता नहीं किससे सामना हो जाए, फिर मेसेज वाली बात पर मुझे चारों तरफ से घेर लें। डिनर के बाद अपने बेड पर औंधे मूंह लेट गया। फिर याद आया। मेटेरियल साइंस की प्रैक्टिकल फाईल बनानी थी। सोमवार तक सबमिट करनी थी। मेहता सर ने सभी के मेल आईडी पर मैनुअल भेज दी थी। मैं मेल चेक करने लगा। एक –एक एक्सपेरिमेंट दस-दस पेज के थे। बी॰ टेक॰ में फाईल ने तो खासा परेशान किया था। इतनी तो स्कूल लाईफ में भी प्रोब्लेम नहीं हुई थी। वहाँ हम सोचते थे कि अब हम बड़े हो गए। कॉलेज में तो फ़्रीडम होगी। कोई हमसे कुछ नहीं कह पाएगा। मगर इसके विपरीत यहाँ तो हमें नर्सरी के बच्चों जैसा बर्ताव किया जाता है। हर बात में डिग्री का डर दिखाते हैं। मैनुअल को डाऊनलोड कर लिया। एक बार जब आप नेट यूज करते हैं, और फेसबुक पर लॉग इन न करें, यह असंभव जैसा ही है। मगर कुछ खास था नहीं। एक फ्रेंड रिक्वेस्ट आई हुई थी। मेरे किसी जूनियर की थी। चूंकि मैं नवोदय विद्यालय से पास आउट हूँ। इसलिए जो बच्चे भी नवोदय से जुड़े थे, वे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज देते थे और कुछ नहीं तो भावनात्मक लगाव के कारण मुझे, ऐक्सेप्ट करना पड़ता था। इसके अलावा एक नोटिफिकेशन था। समझ गया किसी ने मुझे टैग किया होगा अपने किसी ईमेज की लाईक्स बढ़ाने के लिए। फेसबुक पर यही चीजें कॉमन हैं, कहने के लिए तो यह एक सोशल नेटवर्किंग साईट है, मगर सोशल जैसा यहाँ कुछ भी नहीं होता। अधिकांशतः केवल पिक्स देखने को मिलते थे। वो भी नए – नए पोज में। जो पिक्स डालते थे, बेचारे दिन भर इसी में लगे रहते कि उसपर कितने लाईक्स आये। कुछ अच्छे खयाल और उपदेशात्मक बातें भी दिखती थी, जिनपर हजारों लाईक्स और कमेन्ट होते थे, मगर मुझे लगता है कि लाईक करने के साथ ही सारी संवेदना खत्म हो जाती थी। उसे जीवन में उतारने का समय कौन निकालें? फिर भी, फेसबुक मेरे लिए बेहतर भी साबित हुआ था। ऐसे कितने ही पुराने क्लासमेट और फ्रेंड्स जो समय की रफ्तार में कहीं पीछे छुट गए थे, कम-से कम, अब उनसे अंतर्जाल के ही माध्यम से मुलाक़ात तो होती थी। अनमने ढंग से मैं अपने होम पेज को ऊपर की तरफ स्क्रॉल कर रहा था, तभी श्रुति का मेसेज आया –
“ Hi”
अँग्रेजी का यह “हाय” शब्द भी बड़ा अजीब है। कितनी उत्कंठाओं और मनोभावों को रहस्यमयी रूप से अपने अंदर समेटे हुए। सामने वाला व्यक्ति आपसे क्या कहना चाहता है, यह समझना मुश्किल है। मुझे तो यही समझ में आया है कि प्रतिउत्तर में आप भी उसी शब्द को रिप्लाई कर देते हैं, तो इसका मतलब कि सामने वाले की मनोस्थिति को आपने समझ लिया है। विचारों में मग्न होते हुए भी मैंने वही शब्द लिखा-  “ Hi"
हालांकि मुझे इसका कोई अनुमान नहीं था कि श्रुति की इस औपचारिक शब्द में कौन – से मनोभाव छिपे थे?
“ Looking busy.”
मेरे रिप्लाई में की गई देरी को उसने कुछ ऐसा ही समझा।
“ नहीं। ऐसी बात नहीं है।''
“ कल मैंने तुम्हें good night wish किया था। but you didn’t reply……..?” 
 मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैंने अपने मोबाइल को चेक किया। श्रुति ने मेसेज कर रखा था। चूंकि मैंने मोबाइल ऑफ कर दिया था और सुबह से मैंने, न ही कोई मेसेज पढ़ा था। इसलिए मुझे पता नहीं चला। यानि कल का मेसेज श्रुति ने ही भेजा था। इस अनुभूति ने कुछ देर के लिए मुझे विस्मित कर दिया।
" मेरा मोबाइल ऑफ हो गया था। इसलिए मैं पढ़ नहीं पाया। " उलझती हुई चीजों को मैंने संभालने की कोशिश की।
" इट्स ओके।"
उसके इन शब्दों से मुझे तसल्ली मिली। मगर इस 'ओके' शब्द की भी एक दुविधा है कि वार्तालाप की निरंतरता में यह शब्द अचानक से विराम लगा देता है। फिर वार्तालाप को कैसे आगे बढ़ाया जाएँ। इसकी भी समस्या खड़ी हो जाती है। यूं कहे तो फिर से एक नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है।
Continued................

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