Sunday, August 26, 2012

तुमने कहा था

पूछती हूँ तुमसे-
क्यों रही मैं, बेकल,
जबकि मैं, तुम्हारी थी।
सर्वस्व तुमपर, हारी थी।
वह बाँहों, का हार,
वह रूप, और श्रृंगार,
जो सिर्फ, तुम्हारा था।
प्रकृति ने तो मुझे, बस,
 साँचें में, उतारा था।
फिर वासंती, रंगों से,
यौवन की, उमंगों से,
तुमने मुझे, निखारा था।


अभी-भी याद है, मुझे-
प्रथम, प्रणय संगीत,
नूतन, तुम्हारे अधरों से,
छलकता हुआ, प्रीत।
सहेज भी न पायी थी,
कितनी मैं, घबरायी थी।
फिर बांधा था, मैने,
उसे अपने, आंचल में,
आँखों के, काजल में,
सावन के, बादल में।

कैसे मैं भूलूँ-
महकती हुई, रातें,
आँखों ने, आँखों से,
जब की, थी बातें।
फिर चुप-सी धड़कन को,
साँसों ने छुआ था,
उसी क्षण, मेरा,
पुनर्जन्म, हुआ था।
क्या सब-कुछ व्यर्थ था?
या, उनका कोई अर्थ था?

तुम क्या जानो-
नारी-हृदय की आशा,
उस प्रेम की, परिभाषा।
सहस्त्रों तूफानों से,
रोज यह, टकराती है,
हर गुजरती, शाम में,
यह, टूट-टूट जाती है।
मगर, न जाने क्यों,
उन्हीं अधूरे स्वप्नों को,
तार-तार, अपनों को,
फिर, जोड़ने लग जाती है।

जानती हूँ, मैं भी,
है, युगों की प्रतीक्षा,
और अनवरत, परीक्षा,
मगर, ह़ृदय की आशा,
शायद, तुम आओगे,
वह वादा, निभाओगे,
जो कभी मुझसे-
तुमने कहा था................