Saturday, February 4, 2012

मैं तुम्हारी हूँ



मेरे  प्राणेश-
यह आखिरी शाम,
और वह भी ,बीत गयी.
तुम्हारी वह, खामोशी,
आज फिर से, जीत गयी.
कुछ भी तो मुझे न मिला,
न राधा का अभिमान,
न मीरा का सतीत्व.
फिर कैसे मिलता,
मेरे यौवन को व्यक्तित्व.
क्योंकि सागर की, बाहों में हीं,
नदी पाती है अस्तित्व.

काश! तुम समझ पाते,
मेरे जीवन की आश,
जैसे धरती और आकाश,
वही अधूरी प्यास,
तुम्हें पाने का एहसास.
शायद इसीलिए, अब तक,
चल रही थी साँस.

आज फिर वही तन्हाई है,
फर्क इतना- सा है,
कि तुम्हें मुझसे छुड़ाने,
स्वयं मौत चलकर आई है.
कैसे उसे समझाऊँ,
कि मैं एक विक्षिप्त हूँ.
तुम्हारी स्मृतियों के ,
अवसादों से लिप्त हूँ.
आज भी व्याकुल ,
विवश और, रिक्त हूँ.

करोड़ों सृष्टियाँ होंगी,
और करोड़ों जन्म.
यह आत्मा  ढुढ़ेगी,
जीवन  का मर्म.
मगर इसे मुक्ति न मिलेगी.
इस अधूरी आत्मा को,
कभी तृप्ति न मिलेगी.
क्योंकि मैं तुम्हारी हूँ,
सिर्फ तुम्हारी..........



  





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