Saturday, March 31, 2012

माँ का आँचल

सतरंगी किरनें मधुर लय में गा रही हैं,
शाम की बहार पल - पल छा रही हैं.
पंछी अपने घोंसलों को जा रहे हैं,
भवरें नया गीत गुनगुना रहे हैं.
रेशमी आगोश में, शिशु को लिटाये,
माँ खड़ी है , लज्जा से गर्दन झुकाए.

लोरियों की तान में वह सो पड़ा है,
वहाँ जहाँ स्नेह - अमृत हीं भरा है.
बगल की सभी डालियाँ , जब झूमती है,
माँ ख़ुशी से , लाल को भी चूमती है.
स्वप्न के शहर में है, खोया हुआ वह,
माँ की गोद में , यूँ है सोया हुआ वह.

जैसे वह आगोश हो, फूलों का उपवन,
कमल-कोमल कलियों का सुन्दर बिछावन.
जैसे वह आगोश हो, सुरभित सरोवर,
प्रेम रस का छाँव देता कोई तरूवर.
जैसे वह आगोश हो, ज़न्नत की दुनिया,
साथ में समेटें हो , हर एक खुशियाँ.

यही मेरी जिंदगी , समतल धरातल,
यही मेरी खुशियों से, विरक्त बादल,
यही मेरी तृष्णा, जो कर देती बेकल,
याद करता हूँ, मैं जब भी, 
माँ का आँचल.....

Thursday, March 8, 2012

वे आंखें



आज उसके काँपते हुए,
हाथ इशारा करते है.
वह भी कभी जवान था.
फौलाद- सा इंसान था.


उसकी लम्बी- झुकी काया,
जिनमें अतीत की है छाया.
जो थी कभी, इतनी कड़ी,
धुप , वर्षा, आँधियों में,
भी रही , तनकर खड़ी.

चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ,
बताती हैं कि, उसने भी,
बहा दिया , अपना लहू,
अगली पीढ़ी की ख़ुशी में,
अपने बच्चों की हँसी में.


तब घर में उसका राज था,
क्योंकि उसका हीं साम्राज्य था.
परिवार उसकी भेड़ें थी,
जो सदैव , उसे घेरे थी.

आज जब जर्जर बुढ़ापा,
इस कदर कुछ छाया है.
मानो इस गड़ेरिये की,
साख मिटाने आया है.

अब भी वही भेड़ें है,
मगर कोई अब न घेरे है.
सबसे अलग वह है खड़ा,
अपनी हीं, जिद पर है अड़ा.

जिद है , उसकी आन की,
अपने हीं, आत्म-सम्मान की,
जो उसका , अधिकार है.
मगर किस बल- बूते,
पर , वह ,  यह  ले,
क्योंकि वह निराधार है.

अब तो बस वे आंखें हैं,
गहरी,चोटिल,धूमिल आंखें,
जो विवशता से भरी हैं,
आगंतुकों से दया की,
भीख लेने को खड़ी हैं.




Wednesday, March 7, 2012

तुम्हारी याद



जब डूबती है शाम , और भींगती है रात,
जब चाँदनी से धुलती, है सारी कायनात,
कैसे बताऊं तुम्हें मैं , मजबूर ये हालात,
बेचैन मेरी सांसें ,और अनगिनत जज्बात.

यह सच है कि तुमसे , मैं कह नहीं पाया,
समंदर की तरह कभी मैं , बह नहीं पाया,
आवारगी ने जब मुझे , बदनाम कर दिया,
क्या करूँ खामोश, तब मैं, रह नहीं पाया.

यूँ तो अकेले मंजिलों की , राह चल सकता हूँ मैं,
मुश्किलों के दौर में , गिरकर संभल सकता हूँ मैं,
न जाने तुम्हें देखकर ,क्यों ऐसा लगता है मुझे,
तुम जो दे दो साथ तो, दुनिया बदल सकता हूँ मैं.

अधूरी मेरी रूह  और , अधूरी हैं  बाहें,
अश्क पीते-पीते,थक गयी हैं निगाहें,
मर्द होकर रोता है,  कहने लगेंगे लोग,
इसीलिए ख़ामोशियों में ,भरता हूँ आहें.......



Friday, March 2, 2012

निमंत्रण


स्वर्ण - सेज पर सोने वाले , देता हूँ मै आज निमंत्रण,
नग्न -भग्न और रुग्न वह काया, करती है तेरा आमंत्रण.

जाकर देख कि क्यों कहीं कोई, पेट बाँध कर सोता है,
सूखे स्तन से चिपका  ,  वहीँ बच्चा भूखा रोता है.

जाकर देखो उस निकेत में, जहाँ प्रकाश का दीप नहीं,
पेट की आग बुझाने में, बुझ गया वही कुलदीप कहीं.

जाकर देख कि आँख का मोती, कब सागर-सा बनता है,
बाप के कंधे पर हीं जब कहीं ,  बेटे का शव जलता है.

जाकर देख की वीभत्सना,  कैसे तांडव बन जाती है,
विवशता की आँधी में, जब लज्जा नंगी हो जाती है.

इतना सामर्थ्य कहाँ है तुझमें, जो तुम उनको देख सकोगे,
मेरी कविता को पढ़कर हीं  ,  क्या वहाँ आँखें रोक सकोगे?