Monday, July 16, 2012

वह

कितनी चमक थी,
उन आँखों में -
कुछ नया करने की,
स्वप्न के क्षितिज तले,
आसमाँ में, उड़ने की।
जानता था, वह भी,
बदलेगा, समाज,
कल नहीं, तो आज,
उसके ही, हाथ से,
परिवर्तन के, साथ से।

  मगर दुर्भाग्य-
कुछ भी नहीं, ऐसा हुआ,
न जाने फिर, कैसा हुआ?
आँखों में, दबा रोष,
और सदियों का, आक्रोश।
इस तरह, हवा चली,
नगर-नगर, गली-गली।
वह भी उन, हवाओं के,
संग ही तो, बह गया।
ह्रदय में, जो स्वप्न था,
पीछे कहीं, रह गया।

फिर अजब से खेल,
में वह फँस गया।
उग्रवाद, के  घने,
दलदलों में, धँस गया।
क्या चाहता था वह,
कहाँ आकर, बस गया।

कितनों को उसने मारा,
कम-से-कम, इसी तरह,
स्वयं को, उसने भी,
गरीबी से उबारा।
जिस गरीबी ने उसे,
बचपन से था, लताड़ा।
अब वह, एक वृक्ष था,
जिसकी हरेक,शाख पर,
कई जिंदगियाँ, पलती थी।
जिसकी छाया, के तले,
अभागों, अधनंगों की,
उजड़ी हुई, उमंगों की,
किस्मतें, बदलती थी।

सुना है कल-परसों ही,
हुई, पुलिस मुठभेड़,
अकेले ही, उसने,
सैकड़ों को, किया ढेर।
मगर मौत ने, उसे भी,
कर दिया, परास्त।
उसके इस, निर्जन सफ़र का,
हो गया, सूर्यास्त।
सारी सृष्टि, शांत थी, 
बस रो, रहे थे वे,
जिनकी आँखों का, तारा गया,
आज के, अखबार में,
देखा, वह मारा गया.............

Sunday, July 1, 2012

फिर से जिन्दा कर दो

मेरी शुभे -
अब पलकों पर, स्वप्न नहीं रुकते,
न साँसों में, जोशे-जुनूँ, जगती है।
क्या कहूँ ! किस कदर टूटा हूँ,
हवा के झोंकें से भी, चोट लगती है।
वो पहली बारिश, गुदगुदाती नहीं,
चाँदनी रातें अब, सुहाती नहीं।
खलाओं में, जिंदगी गुजरती है,
ख़ुशी भी, पास आने से, डरती है।

यह तीरगी मुझे अब, जला देगी,
खामोशियों में, एक दिन, सुला देगी, 
जानता हूँ, कुछ नहीं कर पाऊँगा,
रह-गुजर में खुद हीं, बिखर जाऊँगा।
यहाँ मेरी आत्मा, मुझसे जलेगी,
विरह की यह शाम, कभी न ढलेगी,
कब तलक अटके रहेंगे, प्राण मेरे,
बिन तुम्हारें, मौत भी, मुझे न मिलेगी।

सौगंध है तुम्हें, हमारे प्रीत की,
अश्क में डूबे हुए, इस गीत की,
फिर से मेरी जिंदगी को, इक सफ़र दो,
स्नेह-निर्झर बाँहों का, वह समंदर दो,
फिर से मेरी साँसों में, संगीत भर दो,
लौट आओ ! मुझे फिर से जिन्दा कर दो.............


(कठिन शब्दों के अर्थ: खलाओं- शुन्य, तीरगी- अँधेरा , )

Please leave your comments and suggestions in the comment box, also write your name with your comments.