कितनी चमक थी,
उन आँखों में -
कुछ नया करने की,
स्वप्न के क्षितिज तले,
आसमाँ में, उड़ने की।
जानता था, वह भी,
बदलेगा, समाज,
कल नहीं, तो आज,
उसके ही, हाथ से,
परिवर्तन के, साथ से।
फिर अजब से खेल,
में वह फँस गया।
उग्रवाद, के घने,
दलदलों में, धँस गया।
क्या चाहता था वह,
कहाँ आकर, बस गया।
उन आँखों में -
कुछ नया करने की,
स्वप्न के क्षितिज तले,
आसमाँ में, उड़ने की।
जानता था, वह भी,
बदलेगा, समाज,
कल नहीं, तो आज,
उसके ही, हाथ से,
परिवर्तन के, साथ से।
मगर दुर्भाग्य-
कुछ भी नहीं, ऐसा हुआ,
न जाने फिर, कैसा हुआ?
आँखों में, दबा रोष,
और सदियों का, आक्रोश।
इस तरह, हवा चली,
नगर-नगर, गली-गली।
वह भी उन, हवाओं के,
संग ही तो, बह गया।
ह्रदय में, जो स्वप्न था,
पीछे कहीं, रह गया।
में वह फँस गया।
उग्रवाद, के घने,
दलदलों में, धँस गया।
क्या चाहता था वह,
कहाँ आकर, बस गया।
कितनों को उसने मारा,
कम-से-कम, इसी तरह,
स्वयं को, उसने भी,
गरीबी से उबारा।
जिस गरीबी ने उसे,
बचपन से था, लताड़ा।
अब वह, एक वृक्ष था,
जिसकी हरेक,शाख पर,
कई जिंदगियाँ, पलती थी।
जिसकी छाया, के तले,
अभागों, अधनंगों की,
उजड़ी हुई, उमंगों की,
किस्मतें, बदलती थी।
सुना है कल-परसों ही,
हुई, पुलिस मुठभेड़,
अकेले ही, उसने,
सैकड़ों को, किया ढेर।
मगर मौत ने, उसे भी,
कर दिया, परास्त।
उसके इस, निर्जन सफ़र का,
हो गया, सूर्यास्त।
सारी सृष्टि, शांत थी,
बस रो, रहे थे वे,
जिनकी आँखों का, तारा गया,
आज के, अखबार में,
देखा, वह मारा गया.............