Thursday, December 6, 2012

यशोधरा का प्रश्न

अब तो, आप बुद्ध हो,
जड़ा, व्याधि, मृत्यु,
तीनों से, मुक्त हो।
मगर, पुछती हूँ मैं,
यह जो,  संकल्प था,
क्या यही मात्र विकल्प था?
आत्म-बोध पाने का,
इस धरा को बचाने का।
साक्षी है इतिहास -
कृष्ण और राम ने,
स्वंय उस, भगवान ने,
इसी मर्यादित, जीवन में,
सत्य और पराक्रम से,
अपने आज को बदला।
धर्म और रिवाज को बदला।
सम्पूर्ण समाज, को बदला।

यह कैसा पुरुषार्थ है,
सन्यास लो, चल दो कहीं,
कर्तव्य क्या, कुछ भी नहीं।
वह प्रसव की पीड़ा,
जिसके आप, भागीदार थे।
पुत्र राहुल के लिए,
मैं अकेली-ही नहीं,
कुछ, आप जिम्मेदार थे।
फिर क्यों अकेले, मैंने ही,
झेला, यह वैधव्य,
हर रोज दी आहुति,
और, निभाती रही कर्तव्य।

हृदय जानता है -
आप मेरे, श्रिंगार थे,
इन प्राणों के, आधार थे।
चरणों की थी मैं दासी,
बस प्रेम की अभिलाषी।
आखिर दोष क्या था मेरा,
जो एक क्षण में छिन गया,
मुझसे मेरा, आधार।
अग्नि को साक्षी मानकर,
कभी स्वंय, आपने ही,
जो दिया था, अधिकार।

हो गई होती -
यशोधरा भी बुद्ध,
मगर उसके लिए तो,
हर मार्ग थे, अवरुद्ध।
कहाँ नारी को मिला,
उसका कभी व्यक्तित्व,
 उसके लिए तो, जीवन,
 का अर्थ था, दायित्व,
माथे पर था, पतित्व,
तन से लिपटा था सतीत्व,
                 और आँचल में, मातृत्व ................

Tuesday, November 13, 2012

कैसी हो तुम

नहीं आ पाऊँगा घर -
इस दिवाली भी,
क्योंकि हमने तो शपथ ली है,
इस देश को बचाने की,
जो पहले ही बँट चुका है,
न - जाने कितने मुखड़ों में,
धर्म - जाति, नक्सलवाद,
और सांप्रदायिक, टूकड़ों में।

इन बीहड़, सुनसान जंगलों में,
जहाँ जिस्म, रोटी के लिए, फड़फड़ाती है।
जहाँ ठिठुरते बच्चे को देख, आँख भर आती है।
वहाँ हम, बंदूक की नोक पर,
उन्हें जीने का, सलीका सिखाते हैं।
फिर गोलियों, और बारूद के धमाकों से,
अपनी एकता पर, मरहम लगाते हैं।

डरता नहीं, मैं मौत से -
मगर टीस उठती है कि
मैं तो सैनिक हूँ -
ऐसे ही लड़ता जाऊँगा।
रोज ही मरता जाऊँगा।
मगर क्या मेरी मौत,
बदल पाएगी, हालात को,
कश्मीर से, कन्याकुमारी तक,
आक्रोशित, जज़्बात को।

जब ऊब जाता हूँ, इस थकान से,
अपने अंदर के, इंसान से।
ऐसे में आती है, घर की याद,
कैसे हैं, माँ और बाबूजी,
कैसा है, अपनी आँखों का तारा,
अब तो वह, चार सालों का हो गया होगा।
जरूर, तुम्हारे ऊपर गया होगा।
कैसे बताऊँ ?
कितना याद, आती हो तुम,
बम-धमाकों में, मगर,
प्यार, हो जाता गुम।
बस यही, पूछ पाऊँगा -
कैसी हो तुम ?

Sunday, November 11, 2012

आम आदमी

कभी-कभी सोचता हूँ-
उठा लूँ आसमान, अपने सिर पर,
बदल डालूँ, इस समाज को,
झूठे, रस्मों-रिवाज को।
लगा दूँ, अपना जीवन,
गरीबों की, सेवा के लिए,
किसी प्रताड़ित, बेवा के लिए।
झोंक दूँ, खुद को-
आक्रोश की, भट्ठी में,
बाँध लूँ, इस दुनिया को,
अपनी इस, मुट्ठी में।

मगर यह आग-
मेरे अंदर ही, दब जाता है।
नसों और धमनियों में,
उबलता रक्त, जम जाता है।
हृदय का स्पंदन -
साँसों तक, पहुँच नहीं पाता।
और मैं विवश -
कभी-कुछ, कर नहीं पाता।
शायद इसलिए -
क्योंकि मैं एक आम आदमी हूँ ...........

Thursday, November 1, 2012

बेजुबां एहसास

हर रोज सोचता हूँ कि जिन बेचैनियों को रात की खामोशी में आँख की कोर से बहाता हूँ, जिस एहसास को न-जाने कब से मैंने किसी को बताया नहीं। अंदर-ही-अंदर सुलगता रहा। साँसों में एक अजीब- सी चुप्पी लिए हर एक लम्हें से लड़ता रहा अपने वजूद के लिए, अपनी कल्पना को एक सजीव रूप देने के लिए, क्योंकि मेरी रूह तक को भी, यह खबर हो चुकी है कि तुम्हारे साथ के अलावा मेरे इस भागती-दौड़ती जिंदगी का अस्तित्व ही नहीं, कोई मंजिल ही नहीं। मालूम नहीं क्यों और कहाँ जाने के लिए यह सरपट भागती जा रही है? न यह कभी मुझसे पुछती है मेरे जज़्बात और शायद इसे मेरी आरज़ू और ख्वाइश की कोई कदर ही न रही। क्या कहूँ मैं तुमसे अपने इस मौन मोहब्बत के बारे में। हर सुबह जब सूरज की किरने इस धरती को इन्द्र-धनुषी रंगों की एक आँचल पहना देती है, मैं भी उन्हीं किरणों के तेज को अनुभव करता हुआ, अपनी सारी शक्ति को एकत्र करता हूँ। फिर एक प्रण-सा लेता हूँ आज अपनी इस संकोच को मिटा दूंगा। एक-एक पल जो मैंने महसूस किया हैं, तुम्हारे लिए उसे,तुम्हें बता दूंगा। बता दूँगा कि जिंदगी के आँचल में जो खुशी मेरा राह देखती है, वह आँचल तुम्हारे पास है। आँखों में जो सपने सजते है, वहाँ अब तुम्हारी पलकों का डेरा है। मेरे हृदय की धड़कन अब जीने-मरने की इच्क्षा से बेखबर, तूम्हारे धड़कनों में अपनी सांस ढुढ़ती है। ये सूरज, चाँद, फूल, खुशबू, कुछ भी मेरा नहीं। मानों ये रोज मुझे इत्तिला करते हैं कि तुम्हारे बिना मेरे लिए इस खूबसूरती के मायने हीं कहाँ है? मगर, तुम्हारे करीब आते ही सारे एहसास, भावनाओं का ज्वार तुम्हारे चेहरे पर केन्द्रित हो जाता है। पाँव आगे बढ़ते ही नहीं मानो धरती ने इन्हें बांध लिया हो, जुबां खामोश और लब्ज हलफ के अंदर सिमटकर रह जाते हैं। सारी ऊर्जा निस्तेज हो जाती है। हतप्रभ-सा मैं इधर-उधर देखने लगता हूँ, क्योंकि मुझमें यह शक्ति भी नहीं बच पाती कि मैं ठीक से तुम्हें निहार सकूँ। सोचने लगता हूँ कि तुम्हारे भी नाम के आगे कहीं मेरा नाम इस जमाने ने जोड़ दिया तो दोस्तों की महफिल कहीं तुम्हें बदनाम न कर दे। एक खयाल यह भी आता है कि कहीं तुमने इन्कार कर दिया तो ! नहीं-नहीं मैं तो इस खयाल से भी कोसों दूर रहना चाहता हूँ।कम-से-कम आज एक सपना सजाता तो हूँ, ख्वाब में ही-सही, तुम्हें गले लगाता तो हूँ। काश ! तुम भी समझ पाती इन अधूरी दास्तां को, जो तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक तुम बेजुबां एहसास को पढ़ना सीख नहीं लेती। इसी आशा में एक शाम और ढलती है, जिंदगी मद्धिम ही-सही, मगर लौ के साथ पिघलती है। रात की तनहाइयाँ कभी-कभी शुकुन में बदलती है और फिर-से नयी सुबह इन्द्र-धनुषी रंगों में सज कर निकलती है।

 

 

Saturday, September 29, 2012

रस्मों-उल्फ़त के तरीके, रोज बदलते रहे

रस्मों-उल्फ़त के तरीके, रोज बदलते रहे,
एक हम हैं, जो सदैव, आग में जलते रहे।

क्या खबर थी इस कदर, रुसबा करेंगे वो,
ख्वाब जिनकी देखकर, हम नींद में चलते रहे।

कुछ भी नहीं बदल सके, इस घर-समाज का,
लहू जिगर में थामकर, हम व्यर्थ उबलते रहे।

ताक पर ईमान रख, सबकी तरक्की हो गई,
शर्म और लिहाज वश हम, हाथ ही मलते रहे।

 हर गली में द्रौपदी , बेआबरू होती रही,
कृष्ण तो बस मूर्तियों के, रूप में ढलते रहे।

वो हमें अब, जुर्म की, सजा सुनाते हैं,
जो रोज अपने जुर्म के, हिसाब निगलते रहे।

आदमी की क्या बिसात, कौन पूछेगा उसे,
पत्थरों के बीच जब, भगवान निकलते रहे।

Friday, September 14, 2012

आखिरी आरज़ू

इतने दिनों तक, तुमने,
कुछ भी नहीं कहा,
अकेले ही, तुमने,
कितना कुछ सहा,
अन्दर-ही-अन्दर,
थामे रहे, समंदर।
जबकि, तुम्हें तो खबर थी,
मैं थी, लाईलाज,
कुछ दिनों की, मोहताज।

नसों में दौड़ता, जहर,
कीमोथेरेपी का, असर,
कब तक मुझे बचाएगा?
चंद दिन, चंद हफ्तें,
फिर सब ख़त्म, हो जाएगा।
आँखों से बहता नीर,
यह क्षत-विक्षत, शरीर।
जिसके लिए, तुमने,
दाँव पर, लगा दी,
जीवनभर की कमाई,
मगर बदल न पाए,
किस्मत की, जुदाई।

सोचती हूँ मैं-
क्यों रही मैं, जिंदा,
महीनों तक अचल,
रुबरूँ होती रही,
प्रतिक्षण उस, मौत से,
जैसे अपनी सौत से।
जो मेरे इस, जिस्म को,
तुमसे अलग, कर देगी।
इस अभागी, देह का,
हर ज़ख्म भी, भर देगी।

मांगती हूँ मैं-
ले चलो, मुझे अब,
इस शहर से दूर,
जहाँ मैं, देख पाऊँ,
फिर से तुम्हारी आँखों में,
वही चमकता नूर।
कितना दर्द होगा,
मैं सब, सहन कर लूँगी,
पहनकर, तुम्हें साँसों में,
यह आँचल, भर लूँगी।
देखना! यह आरज़ू,
कुछ ऐसा, असर लाएगी।
जिंदगी की सांझ भी,
आँखों से उतर जाएगी।
है मुझे, इतना यकीं,
कुछ दिनों तक, हीं सही,
                    यह मौत, ठहर जाएगी....................

Sunday, August 26, 2012

तुमने कहा था

पूछती हूँ तुमसे-
क्यों रही मैं, बेकल,
जबकि मैं, तुम्हारी थी।
सर्वस्व तुमपर, हारी थी।
वह बाँहों, का हार,
वह रूप, और श्रृंगार,
जो सिर्फ, तुम्हारा था।
प्रकृति ने तो मुझे, बस,
 साँचें में, उतारा था।
फिर वासंती, रंगों से,
यौवन की, उमंगों से,
तुमने मुझे, निखारा था।


अभी-भी याद है, मुझे-
प्रथम, प्रणय संगीत,
नूतन, तुम्हारे अधरों से,
छलकता हुआ, प्रीत।
सहेज भी न पायी थी,
कितनी मैं, घबरायी थी।
फिर बांधा था, मैने,
उसे अपने, आंचल में,
आँखों के, काजल में,
सावन के, बादल में।

कैसे मैं भूलूँ-
महकती हुई, रातें,
आँखों ने, आँखों से,
जब की, थी बातें।
फिर चुप-सी धड़कन को,
साँसों ने छुआ था,
उसी क्षण, मेरा,
पुनर्जन्म, हुआ था।
क्या सब-कुछ व्यर्थ था?
या, उनका कोई अर्थ था?

तुम क्या जानो-
नारी-हृदय की आशा,
उस प्रेम की, परिभाषा।
सहस्त्रों तूफानों से,
रोज यह, टकराती है,
हर गुजरती, शाम में,
यह, टूट-टूट जाती है।
मगर, न जाने क्यों,
उन्हीं अधूरे स्वप्नों को,
तार-तार, अपनों को,
फिर, जोड़ने लग जाती है।

जानती हूँ, मैं भी,
है, युगों की प्रतीक्षा,
और अनवरत, परीक्षा,
मगर, ह़ृदय की आशा,
शायद, तुम आओगे,
वह वादा, निभाओगे,
जो कभी मुझसे-
तुमने कहा था................

Monday, July 16, 2012

वह

कितनी चमक थी,
उन आँखों में -
कुछ नया करने की,
स्वप्न के क्षितिज तले,
आसमाँ में, उड़ने की।
जानता था, वह भी,
बदलेगा, समाज,
कल नहीं, तो आज,
उसके ही, हाथ से,
परिवर्तन के, साथ से।

  मगर दुर्भाग्य-
कुछ भी नहीं, ऐसा हुआ,
न जाने फिर, कैसा हुआ?
आँखों में, दबा रोष,
और सदियों का, आक्रोश।
इस तरह, हवा चली,
नगर-नगर, गली-गली।
वह भी उन, हवाओं के,
संग ही तो, बह गया।
ह्रदय में, जो स्वप्न था,
पीछे कहीं, रह गया।

फिर अजब से खेल,
में वह फँस गया।
उग्रवाद, के  घने,
दलदलों में, धँस गया।
क्या चाहता था वह,
कहाँ आकर, बस गया।

कितनों को उसने मारा,
कम-से-कम, इसी तरह,
स्वयं को, उसने भी,
गरीबी से उबारा।
जिस गरीबी ने उसे,
बचपन से था, लताड़ा।
अब वह, एक वृक्ष था,
जिसकी हरेक,शाख पर,
कई जिंदगियाँ, पलती थी।
जिसकी छाया, के तले,
अभागों, अधनंगों की,
उजड़ी हुई, उमंगों की,
किस्मतें, बदलती थी।

सुना है कल-परसों ही,
हुई, पुलिस मुठभेड़,
अकेले ही, उसने,
सैकड़ों को, किया ढेर।
मगर मौत ने, उसे भी,
कर दिया, परास्त।
उसके इस, निर्जन सफ़र का,
हो गया, सूर्यास्त।
सारी सृष्टि, शांत थी, 
बस रो, रहे थे वे,
जिनकी आँखों का, तारा गया,
आज के, अखबार में,
देखा, वह मारा गया.............

Sunday, July 1, 2012

फिर से जिन्दा कर दो

मेरी शुभे -
अब पलकों पर, स्वप्न नहीं रुकते,
न साँसों में, जोशे-जुनूँ, जगती है।
क्या कहूँ ! किस कदर टूटा हूँ,
हवा के झोंकें से भी, चोट लगती है।
वो पहली बारिश, गुदगुदाती नहीं,
चाँदनी रातें अब, सुहाती नहीं।
खलाओं में, जिंदगी गुजरती है,
ख़ुशी भी, पास आने से, डरती है।

यह तीरगी मुझे अब, जला देगी,
खामोशियों में, एक दिन, सुला देगी, 
जानता हूँ, कुछ नहीं कर पाऊँगा,
रह-गुजर में खुद हीं, बिखर जाऊँगा।
यहाँ मेरी आत्मा, मुझसे जलेगी,
विरह की यह शाम, कभी न ढलेगी,
कब तलक अटके रहेंगे, प्राण मेरे,
बिन तुम्हारें, मौत भी, मुझे न मिलेगी।

सौगंध है तुम्हें, हमारे प्रीत की,
अश्क में डूबे हुए, इस गीत की,
फिर से मेरी जिंदगी को, इक सफ़र दो,
स्नेह-निर्झर बाँहों का, वह समंदर दो,
फिर से मेरी साँसों में, संगीत भर दो,
लौट आओ ! मुझे फिर से जिन्दा कर दो.............


(कठिन शब्दों के अर्थ: खलाओं- शुन्य, तीरगी- अँधेरा , )

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Tuesday, June 12, 2012

सुसाइड-नोट


 माँ -
बहुत कोशिश की मैंने ,
इन आँसुओं को पीने की,
कुछ और , दिन जीने की।
इस अँधेरे , घर में,
जहाँ मेरा कुछ भी नहीं,
जहाँ मैं अभिशाप हूँ।
तुम्हारा कोई, पाप हूँ।
मगर मैं, अस्तित्वहीन ,
वेदना और दुख से क्षीण ,
आज भी, चुप-चाप हूँ।

यह मांग का सिंदूर,
जो सौभाग्य की निशानी है।
कैद मेरी आत्मा की,
अनकही, कहानी है।
जो कभी दुष्चक्र से,
निकल नहीं सकती।
मजबूर, अपने भाग्य को,
वह बदल नहीं सकती।
हर सुबह, जिसके लिए,
भेजती है, एक कफ़न,
रात की, खामोशियों में,
 रोज होती है दफ़न।

पूछूंगी विधाता से-
तुम तो सर्व-ज्ञाता थे,
सृष्टि के निर्माता थे,
फिर क्यों, बदल न पाए तुम,
निर्मम इस समाज को,
युगों की , रिवाज को,
सिसकती हुई आवाज को,
घूंघट में , दबी लाज को।
आखिर क्या थी लाचारी,
क्यों सदा, कटघरे में,
खड़ी रही है , नारी।
चाहे घर, किसी का हो,
पिता या, पति का हो,
रिश्तों के बोझ, के तले,
दबी रही बेचारी।

काश माँ ! मुझे भी वह,
आँचल नसीब होती,
अंतिम बार हीं सही ,
तुम बाँहों में भर लेती।
आखिरी लम्हें में पूरी,
जिंदगी जी लेती।
मगर अब इस आरज़ू को,
ह्रदय में सँजोती हूँ।
और तुमसे क्या कहूँ,
          बस आत्म-सात होती हूँ........

Saturday, May 26, 2012

कश्मे-कश


कश्मे-कश में हूँ , तुम्हें सुनाऊँ भी तो कैसे ,
जख्म जो दिल पर लगे, दिखाऊँ भी तो कैसे ?

कहाँ तुम चंचल नदी , और मैं वीरान सागर,
तुम मेरे स्वप्नों की आभा , और मैं यायावर,
फिर हसीन ख्वाब मैं , सजाऊँ  भी तो कैसे ,
इस आग -पानी को भला , मिलाऊँ भी तो कैसे?

वह हवा जो रोज , मेरे कमरे में आती है,
तुम्हारें बदन को छूकर , मुझसे लिपट जाती है .
उस महक को  , दामन से मिटाऊँ भी तो कैसे ,
तन्हाइयों की रात यह, बिताऊँ भी तो कैसे ?

तुम कली हो , हुस्न की दुनिया दीवानी है,
हर किसी को यहाँ , किस्मत आजमानी है,
इस भीड़ में फिर, अपना हक़ जताऊँ भी तो कैसे ,
जो है मेरी आँखों में, बताऊँ भी तो कैसे ?

कभी जो देखता हूँ मैं , तुम्हें गैरों की बाहों में,
शूल -सी चुभ उठती है कुछ, मेरी इन निगाहों में,
तुम ही कहो चुप-चाप फिर रह पाऊँ भी तो कैसे,
दर्द की यह दास्ताँ , कह पाऊँ भी तो कैसे?

इक निराशा , इस ह्रदय को चीर देती है,
हर राँझे  से दूर , उसकी हीर होती है,
फिर ख़याल आता है, मर जाऊँ  भी तो कैसे,
बदनाम अपनी उल्फत को, कर जाऊँ भी तो कैसे........?

Sunday, April 22, 2012

कहाँ जाना चाहते हो?


रोज सफलता के किस्से,
भर गए , जीवन के हिस्से,
मगर न कोई, हमसफ़र है,
कैसा निर्जन ,यह सफ़र है.
रात की नींदों को त्यागे,
किसलिए तुम जागते हो?
कहाँ जाना चाहते हो?

न पिता की छत्र-छाया,
न बहन का स्नेह पाया,
माँ की ममता से भी वंचित,
न प्रेम -रस से हुए सिंचित.
किन सुखों को पाने हेतु,
इन सबों को त्यागते हो?
कहाँ जाना चाहते हो?

जब भी दुआ में हाथ उठाया,
दौलत हीं दौलत माँग लाया.
रोक दे मुझको , उठाना,
मगर,रोक न उसको गिराना,
स्वप्न में भी,तुम खुदा से,
क्या यही बस मांगते हो?
कहाँ जाना चाहते हो?

अर्थ का रंगी ज़माना,
हर ख़ुशी के दाम पाना.
तुमने सीखा है, यहाँ पर,
 एहसान कर, इतना बताकर.
अपनी हीं छाया के तले से,
क्यों सदा तुम भागते हो?
कहाँ जाना चाहते हो?




  

Saturday, April 7, 2012

तन्हाई



जब आसमां , जमीं पर आकर, झुकने लगे,
मुकद्दर भी , अपनी बाजुओं में टूटने लगे,
ऐ दोस्त!तेरी जिंदगी में, अब भी क्या कमी है?
तब लोग आकर मुझसे, यह पूछने लगे.

क्या बताता मैं उन्हें , सब कुछ यहाँ परायी है,
हर सिकंदर की तरह, मेरे पास भी तन्हाई है,
चंद साँसों को जिन्हें,अपना समझ बैठा था मैं,
जिंदगी भी, मौत से , उधार मांग लाई है.

कैसे बताऊँ मैं उन्हें , कि कैसे गुजरा यह सफ़र,
इक सहारे के लिए , तरसता रहा हूँ उम्र-भर,
बाजुओं के दम पर मैंने , जीत रक्खा था जहां,
फिर भी नमी छायी रही, सदैव मेरी आँखों पर.......

Friday, April 6, 2012

रामदेव बाबा


दूख़ में बाबा, सुख में बाबा,
सब कोई सुमिरै, बाबा-बाबा,
नहीं जाता, कोई काशी-काबा,
जब से आये , रामदेव बाबा.

रोगी के भी डॉक्टर बाबा,
भोगी के भी डॉक्टर बाबा,
योगी के भी डॉक्टर बाबा,
ढोंगी के भी डॉक्टर बाबा.

जो डॉक्टर थे माला-माल,
मक्खी मारते हैं बेहाल,
रोज सुनाते , अपना हाल,
योगी बाबा, उनके काल .

कहीं शीर्षासन , कहीं वज्रासन,
हर घर में , जमता है आसन,
वे सब करते हैं, नौकासन,
जिनका पेट था बना सिंहासन.

बस में जाइए , वहाँ भी आसन,
कोई ट्रेन में , करता आसन,
बाबा का है, ऐसा शासन,
पुस्तक में भी, हुआ प्रकाशन.

जय बाबा का, हुआ यूँ नाम,
भूल गए सब , जय हनुमान,
फ़ल वालों की बंद दूकान,
कद्दू-ककड़ी की बढ़ गयी मांग.

बाबा नाम की मची है लूट,
दवाओं में ,  देते वे छूट,
जनता पड़ी है , ऐसे टूट,
मरू-भूमि में जैसे,मिला हो ऊंट.

बाबा बन गए टेलि-बाबा,
सीडी में भी, आते बाबा,
दिल्ली से लन्दन तक बाबा,
ऐसे छाये , जैसे ढाबा.

सबके तुम हो , रक्षक बाबा,
रोगों के हो, भक्षक बाबा,
मेरी गलती , माफ़  हो बाबा,
जय हो तेरी, जय हो बाबा.




Saturday, March 31, 2012

माँ का आँचल

सतरंगी किरनें मधुर लय में गा रही हैं,
शाम की बहार पल - पल छा रही हैं.
पंछी अपने घोंसलों को जा रहे हैं,
भवरें नया गीत गुनगुना रहे हैं.
रेशमी आगोश में, शिशु को लिटाये,
माँ खड़ी है , लज्जा से गर्दन झुकाए.

लोरियों की तान में वह सो पड़ा है,
वहाँ जहाँ स्नेह - अमृत हीं भरा है.
बगल की सभी डालियाँ , जब झूमती है,
माँ ख़ुशी से , लाल को भी चूमती है.
स्वप्न के शहर में है, खोया हुआ वह,
माँ की गोद में , यूँ है सोया हुआ वह.

जैसे वह आगोश हो, फूलों का उपवन,
कमल-कोमल कलियों का सुन्दर बिछावन.
जैसे वह आगोश हो, सुरभित सरोवर,
प्रेम रस का छाँव देता कोई तरूवर.
जैसे वह आगोश हो, ज़न्नत की दुनिया,
साथ में समेटें हो , हर एक खुशियाँ.

यही मेरी जिंदगी , समतल धरातल,
यही मेरी खुशियों से, विरक्त बादल,
यही मेरी तृष्णा, जो कर देती बेकल,
याद करता हूँ, मैं जब भी, 
माँ का आँचल.....

Thursday, March 8, 2012

वे आंखें



आज उसके काँपते हुए,
हाथ इशारा करते है.
वह भी कभी जवान था.
फौलाद- सा इंसान था.


उसकी लम्बी- झुकी काया,
जिनमें अतीत की है छाया.
जो थी कभी, इतनी कड़ी,
धुप , वर्षा, आँधियों में,
भी रही , तनकर खड़ी.

चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ,
बताती हैं कि, उसने भी,
बहा दिया , अपना लहू,
अगली पीढ़ी की ख़ुशी में,
अपने बच्चों की हँसी में.


तब घर में उसका राज था,
क्योंकि उसका हीं साम्राज्य था.
परिवार उसकी भेड़ें थी,
जो सदैव , उसे घेरे थी.

आज जब जर्जर बुढ़ापा,
इस कदर कुछ छाया है.
मानो इस गड़ेरिये की,
साख मिटाने आया है.

अब भी वही भेड़ें है,
मगर कोई अब न घेरे है.
सबसे अलग वह है खड़ा,
अपनी हीं, जिद पर है अड़ा.

जिद है , उसकी आन की,
अपने हीं, आत्म-सम्मान की,
जो उसका , अधिकार है.
मगर किस बल- बूते,
पर , वह ,  यह  ले,
क्योंकि वह निराधार है.

अब तो बस वे आंखें हैं,
गहरी,चोटिल,धूमिल आंखें,
जो विवशता से भरी हैं,
आगंतुकों से दया की,
भीख लेने को खड़ी हैं.




Wednesday, March 7, 2012

तुम्हारी याद



जब डूबती है शाम , और भींगती है रात,
जब चाँदनी से धुलती, है सारी कायनात,
कैसे बताऊं तुम्हें मैं , मजबूर ये हालात,
बेचैन मेरी सांसें ,और अनगिनत जज्बात.

यह सच है कि तुमसे , मैं कह नहीं पाया,
समंदर की तरह कभी मैं , बह नहीं पाया,
आवारगी ने जब मुझे , बदनाम कर दिया,
क्या करूँ खामोश, तब मैं, रह नहीं पाया.

यूँ तो अकेले मंजिलों की , राह चल सकता हूँ मैं,
मुश्किलों के दौर में , गिरकर संभल सकता हूँ मैं,
न जाने तुम्हें देखकर ,क्यों ऐसा लगता है मुझे,
तुम जो दे दो साथ तो, दुनिया बदल सकता हूँ मैं.

अधूरी मेरी रूह  और , अधूरी हैं  बाहें,
अश्क पीते-पीते,थक गयी हैं निगाहें,
मर्द होकर रोता है,  कहने लगेंगे लोग,
इसीलिए ख़ामोशियों में ,भरता हूँ आहें.......



Friday, March 2, 2012

निमंत्रण


स्वर्ण - सेज पर सोने वाले , देता हूँ मै आज निमंत्रण,
नग्न -भग्न और रुग्न वह काया, करती है तेरा आमंत्रण.

जाकर देख कि क्यों कहीं कोई, पेट बाँध कर सोता है,
सूखे स्तन से चिपका  ,  वहीँ बच्चा भूखा रोता है.

जाकर देखो उस निकेत में, जहाँ प्रकाश का दीप नहीं,
पेट की आग बुझाने में, बुझ गया वही कुलदीप कहीं.

जाकर देख कि आँख का मोती, कब सागर-सा बनता है,
बाप के कंधे पर हीं जब कहीं ,  बेटे का शव जलता है.

जाकर देख की वीभत्सना,  कैसे तांडव बन जाती है,
विवशता की आँधी में, जब लज्जा नंगी हो जाती है.

इतना सामर्थ्य कहाँ है तुझमें, जो तुम उनको देख सकोगे,
मेरी कविता को पढ़कर हीं  ,  क्या वहाँ आँखें रोक सकोगे?

Monday, February 20, 2012

मंजिल



कभी बहुत दूर , तो कभी हो पास,
कल्पना के प्याले में , भरती हो मिठास.
यह जानकर कि तुम हो, मुश्किलों का एहसास,
फिर भी तुम्हें पाने की , मुझे लगी है प्यास.

बंधनों से मुक्त हो , स्वछन्द तुम विचरती,
खयालों के साए से , दिल में तुम उतरती.
युवा उमंगें चाहती, उड़कर तुम्हें पकडती,
इतनी चंचल हो तुम , कहीं भी न ठहरती.

तेरा अनुपम, अलौकिक, अद्वितीय स्वरुप,
उत्साह और उल्लास से, भर जाता ह्रदय- कूप .
बढ़ रहा हूँ अब भी, जबकि कड़ी है धुप,
तभी तो मिलेगा मुझे, सुन्दर - सलोना रूप.

मेरी हरेक हार पर, जमाने का खिल-खिलाना,
मुकद्दर के क़हर से, फिर मुझे डराना.
लगन लगी है फिर भी, तुम्हें है सिर्फ पाना,
जहाँ तुम हो, वहीँ घर है, वहीँ मेरा ठिकाना.

कश्ती की प्यास है कि , उसे कब मिलेगा साहिल,
बेताब हूँ मै वैसे, करने को तुम्हें हासिल.
भूल गया अब मैं , है कौन तेरे काबिल,
बस तुम्हें ढूंढ़ता हूँ , कहाँ हो मेरी मंजिल.

 


Sunday, February 19, 2012

आह



तन्हाईयों की आह में , एक राज मैंने पाया है,
जिंदगी क्या चीज है, यह अब समझ में आया है.

रास्ते भर साथ अपने , कारवां भी था मगर,
अब लगा कि साथ मेरे ,बस ये अपनी काया है.

रोज जिनके आंसुओं के , लिए खून दे दिया,
अब लगा इन आंसुओं ने, बस मुझे नचाया है.

चाँदनी भी खिल रही है, अब तो देखो हर जगह,
अपनी ही किस्मत में कहो, कुहरों की घनी साया है.

मतलबपरस्त दुनिया में, गैरों की बात क्या करें,
जब यहाँ अपनों ने भी, मुझे इस कदर रुलाया है.

अश्कों से भींगे नयन देख, लोगों ने यहाँ यह कहा,
फड़क रही है, जरूर कोई शुभ घडी हीं आया है.

हम किसी को दोष दें, तो भी निकाले क्या कसर ,
जब खुदा ने यह मुकद्दर, मेरे नाम से बनाया है. 

Saturday, February 18, 2012

क्योंकि वह सीता नहीं थी




किए थे उसने भी,
अनेकों व्रत-उपवास.
ह्रदय- पटल पर बसी थी,
बस एक वर की आश.
वर हो उसके जैसे राम,
प्रेम-रुपी ईश्वर-धाम.
मगर मिला, ऐसा पति,
रोज होती थी सती.
यही उसका भाग्य था,
सौभाग्य हीं दुर्भाग्य था -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

छोड़ दी गई वह फिर,
घने निर्जन ,अन्धकार में,
विभत्सना के फर्श पर,
वासना की धार में.
वहाँ न था कोई रावण,
जो देता, सोचने का कुछ क्षण.
चाँदनी नहा रही थी,
लज्जा बिखरी जा रही थी.
सिर झुकाए मौन थी वह,
क्या बताए कौन थी वह -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

इधर -उधर, कितने पहर,
न जाने क्यों भटकती रही.
वह अभागिन आत्मा की,
बोझ से दबती रही.
शायद दुआ हीं असर लाए,
कोई वाल्मीकि, नज़र आए.
मगर वह, ऐसी अकिंचन,
विफल होता, जिसका रुदन.
सामने था, जहाँ सारा,
मिलता उसे , कैसे सहारा -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

असह्य हो गई थी पीड़ा,
मुख से निकलती थी हाय.
वसुंधरा ! मुझे गोद में लो,
मूर्छित गिरी, बाँहें फैलाए.
मगर धरती, इतनी निर्मम,
क्या समझती, अबला का गम.
क्यों उसे , गले लगाती,
अपने सीने में छुपाती -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.

आँगन से समाज तक,
धर्म से , रिवाज तक.
कितनी सहन करती उपेक्षा,
फिर दिया अग्नि-परीक्षा.
मगर , वह तो जल गई,
आंसुओं के संग हीं,
अतीत में , बदल गई.
कैसे बच पाती भला वह -
क्योंकि वह सीता नहीं थी.......














Thursday, February 16, 2012

एहसास




उम्र सत्रह पार कर ली,
तुमने इंटर पास कर ली,
यह पढाई छोड़ दो अब,
काम कोई खोज लो अब.
उस दिन पिताजी ने बुलाया,
विवश नेत्रों में बताया,
देखते हो घर की हालत,
कर्ज में डूबा है हर रत.

गाँव में तो कुछ नहीं है,
बाढ़, सुखा सब यहीं है.
तुम शहर की ओर देखो,
कुछ नगर के दाँव सीखो.
पिताजी कहते चले गए,
भाव में बहते चले गए.
सर झुकाए मौन था मैं,
कुछ न सुझा, कौन था मैं.

फिर मुझे माँ ने बुलाया,
आँखों से आँसू उतर आया.
क्या करें ,हम खुद हैं बेबस,
भाग्य पर न किसी का वश.
इस उम्र में सब खेलते हैं,
हँसी-ख़ुशी से डोलते हैं.
भगवन! ये क्या दिखाया तुने,
छाती लगाकर लगी रोने.

मैंने उसके आँसू पोंछे,
लाल थे, जो रक्त- भीचे.
जो हुआ, वह सब सही है,
आज न तो , कल यही है.
समझा- बुझाकर बाहर आया,
बाहर बहन को रोता पाया.
ख़ुशी , जिसकी नूर थी वह,
आज दुःख से, चूर थी वह.

अगले हीं दिन ,चल पड़ा घर से,
अपने शहर, अपने नगर से,
दूर अपनों की नज़र से,
स्नेह , ममता के असर से.
बढ़ चला , एक नयी डगर में,
घोर, निर्जन समंदर में ,
संघर्ष रुपी इस सफ़र में,
प्रौढ़ता के नए पहर में.

बचपन में ,लोगों का था कहना,
यह पुत्र है,इस घर का गहना.
एक दिन यही शिखर चढ़ेगा,
धन-धान्य से घर को भरेगा.
कितने पिताजी खुश हुए थे,
स्वप्न में खोये हुए थे.
माँ भी कितनी खुश हुई थी,
बात जब मेरी हुई थी.

एक दिन बड़ा अफसर बनूँगा,
मुट्ठी से, पैसे गिनूँगा.
मेरी इच्क्षा भी खड़ी थी,
बस प्रतीक्षा , की घडी थी.
पर आज मैं यह जान पाया,
मध्य - वर्गी की ये काया,
नीचे जमीं, ऊपर गगन है,
बस यही अपना चमन है.

कैसे बुझाऊँ ,धन की प्यास,
कैसे करूँ , इसका प्रयास,
बन गया जो, किसी की आश,
करता रहा, यही एहसास.......





Saturday, February 4, 2012

मैं तुम्हारी हूँ



मेरे  प्राणेश-
यह आखिरी शाम,
और वह भी ,बीत गयी.
तुम्हारी वह, खामोशी,
आज फिर से, जीत गयी.
कुछ भी तो मुझे न मिला,
न राधा का अभिमान,
न मीरा का सतीत्व.
फिर कैसे मिलता,
मेरे यौवन को व्यक्तित्व.
क्योंकि सागर की, बाहों में हीं,
नदी पाती है अस्तित्व.

काश! तुम समझ पाते,
मेरे जीवन की आश,
जैसे धरती और आकाश,
वही अधूरी प्यास,
तुम्हें पाने का एहसास.
शायद इसीलिए, अब तक,
चल रही थी साँस.

आज फिर वही तन्हाई है,
फर्क इतना- सा है,
कि तुम्हें मुझसे छुड़ाने,
स्वयं मौत चलकर आई है.
कैसे उसे समझाऊँ,
कि मैं एक विक्षिप्त हूँ.
तुम्हारी स्मृतियों के ,
अवसादों से लिप्त हूँ.
आज भी व्याकुल ,
विवश और, रिक्त हूँ.

करोड़ों सृष्टियाँ होंगी,
और करोड़ों जन्म.
यह आत्मा  ढुढ़ेगी,
जीवन  का मर्म.
मगर इसे मुक्ति न मिलेगी.
इस अधूरी आत्मा को,
कभी तृप्ति न मिलेगी.
क्योंकि मैं तुम्हारी हूँ,
सिर्फ तुम्हारी..........



  





Friday, January 20, 2012

दूरी



यह कैसी है दूरी,
हमारे आपके बीच में,
एक ही कमरे  में ,
हम दोनों खड़े है.
मगर सामानांतर विचारों पर,
आपस में अड़े है.

अन्य लोगों के सामने,
आपके उज्ज्वल ललाट पर,
कैसी मुस्कान छायी होती है.
मैं बयाँ नहीं कर सकता,
कि आपके उस रूप से,
मुझे कितनी ख़ुशी होती है.
मगर मेरे सामने आते हीं,
वहाँ खामोशी छा जाती है.
मेरे लिए तो मानो,
क़यामत हीं आ जाती है..

आपकी वह  गहन चुप्पी,
मेरा साहस तोड़ देती है,
चाहता हूँ  कुछ कहना,
मगर कोई अदृश्य शक्ति,
मुझे स्वयं रोक देती है.

क्या कहूँ मै आपसे,
ऐसा लगता है मानो,
मेरी हरेक गलती को,
आप स्वयं जानते है.
उपलब्धियों के बारे में,
फिर मैं आपसे क्या कहूँ,
जब आप मेरी क्षमता को,
स्वयं हीं पहचानते है.

आप मेरे पिता हैं,
और मै आपका पुत्र.
मगर आज तक न समझा, 
इस रिश्ते का सूत्र.

कौन है दीवार,
आपकी वह गहन चुप्पी,
या मेरा अदृश्य डर.
या इससे भी बढ़कर,
युग - परिवर्तन का क़हर.

दोष सिर्फ मेरा है,
ह्रदय मानने को तैयार नहीं.
जबकि मुझे भी ज्ञात है,
कि आने वालें समय में,
जब मेरे भी बच्चे होंगे,
वे भी ऐसा हीं सोचेंगे.
उस अनजाने,भविष्य की,
कल्पना मात्र से, सिहर जाता हूँ.
मगर चाहकर भी ,इस दूरी को,
 मैं मिटा नहीं  पाता  हूँ. 



                             

Thursday, January 12, 2012

अभागिन



अभागिन -
               सिर झुकाए बैठी है,
लेकर -
थकी हुई आँखें,
पथरायी हुई बाहें.
जिनमे न कोई मंजर है,
न कोई कहानी.
एक क्षण में बीत गई,
उसकी भरी जवानी.

                                             क्या बचा है शेष,
                                             कुछ यौवन के अवशेष,
                                             वह भी काले लिबास में,
                                             रोज की परिहास में.

आँचल अलग गिरा है,
तन खुला पड़ा है.
संभालती नहीं वह,
जहाँ उसकी लाज है.
जिसे सदैव ढकें रखना,
समाज में रिवाज है.
                                             बगल में ही सिर झुकाए,
                                             खड़ा बूढ़ा बाप है.
                                             उसकी यह वृधा-वस्था,
                                             उसके लिए अभिशाप है.
                                             क्या करेगा वह भला,
                                             जब स्वयं विधाता भी,
                                             इस घड़ी चुप-चाप है.
                                             शायद वह भी भूल गया,
                                             क्या सही, क्या पाप है?

आँगन में उसकी  बहन है.
जो देख, मुस्कुराती है.
कोई गीत गुनगुनाती है.
इसमें उसकी क्या है गलती,
वह अभी अबोध है.
उसे क्या पता है, यौवन,
गति या ,अवरोध है.
                                              काश! वह समझ पाती,
                                              जिंदगी की हार को.
                                              सदियों से होती रही,
                                              भीषण अत्याचार को.
                                              अपनी बहन के साथ घटित,
                                              घृणित  बलात्कार को.............
                  
                                              

Sunday, January 8, 2012

कैसा यह जहान है?

ऐ खुदा ! तू ही बता, तेरा कैसा यह जहान है?
तुने बनाया था जिसे, क्या आज वही इंसान है?

एक दी सबको लहू, और एक जैसी आत्मा,
फिर क्यों किसी के नाम में,सरदार,सिंहऔर खान है.

जिन्हें फरिश्ता जानकर, हम उनके पीछे हो लिए,
अब उन्हीं पैरों तले , कुचलती अपनी जान है.

देखता हूँ जिंदगी भर, लोग मरते हैं यहाँ,
यह जानकर कि वे भी,कुछ दिनों के मेहमान है.

हँसी तो उनपर आती है, जो रोज मौत देते है,
क्योकि वे अभी तक ,अपने मौत से अंजान है.

रौशनी इतनी जो की, कुछ भी दिखाई न दिया,
यह रौशनी भी कुछ नहीं,अंधेरे के समान है.

चंद सिक्कों के लिए , इंसान कितना गिर गया,
मैं तो क्या,तुम्हें भी, अब इसका कहाँ अनुमान है.

तेरे ही जहान से ,कितनो की दुनिया, छिनकर,
मंच से कहते हैं फिर, हमारा भी ईमान है.      

Friday, January 6, 2012

बेवफा की याद

इश्क की राहों में अब तो, ऐसी भी रुस्बाई है.
बेबसी कहो इसे तुम ,   पर वो बेवफाई है.
ख्वाब रंगी क्या सजाऊँ , गर्दिशों के घेरे में,
जब शेष मेरी जिंदगी में, बस यही तन्हाई है.

जानता तो मैं भी था, एक दिन कभी जुदाई है,
आज न तो कल सही, फिर मौत से विदाई है.
खुदा कसम तन्हाइयों में ,जिंदगी बिता देता,
जो जानता कि इश्क मेरा , इस कदर सौदाई है.

भरी दुपहरी है अभी तो ,शाम तक चढ़ाई है,
ग़मों के साए में , तेरी यादों की परछाई है.
कैसे खिला लू नया मंजर , राह उल्फत में बता,
टूटे घरोंदो की आह दिल में ,आज भी समाई है.

वेश्या क़ी आत्मकथा

मै एक वेश्या-

कभी थी मैं भी चंचल,
इतराती, खिलखिलाती,
उमंगो की धवल  पर,
स्वप्नों को सजाती.

फिर आ गया भी वह दिन,
यौवन कली बनी मैं.
नव कुसुम के नवल रस के,
भार से लदी मैं.

हाय रे भाग्य !किस तरह वह रूठा,
परिस्थितियों ने मुझे किस कदर फिर लूटा.
उमंगो का दमन कर अपना ली मृत्यु-शय्या,
विवशता के दौर में बन गयी एक वेश्या.

छुटा हरेक नाता,
माँ, बहन,बेटी का मुझमे,
अब रूप कैसे आता,
राह चलता मनुज भी,
कुलटा पुकार जाता.

चाहती हूँ लौटना,
मगर देखती हूँ द्वार पर,
नर -भेड़िये खड़े हैं,
नग्न करने को मुझे ,
वे बेकल पड़े हैं.

दिन के उजालों में,
कोई स्वीकार करे या नहीं,
मगर गर्व है ,मुझे इस बात का,
कितने अभागो के दर्द पर,
मरहम मैं लगाती हूँ.
निस्तब्धता के दौर में,
जब कुछ नहीं है सूझता,
अभागों का अपना भी,
जब नहीं है पूछता,
उस वक्त उनके सामने,
प्रेम- स्नेह, ममता का,
स्रोत ही बन जाती हूँ.

गम भी होता है मुझेकि,
रोज जिनकी आत्मा क़ी
प्यास मैं बुझाती हूँ
जिनके सुने ह्रदय में ,
जीने का उत्साह जगाती  हूँ
उन्हीं लोगों से भरे समाज में,
पतिता पुकारी जाती हूँ ?


क्या कहोगे तुम इसे यह भी कोई शमशान है?




क्या कहोगे तुम इसे यह भी कोई शमशान  है,
जिधर भी देखो , हर तरफ शीशे का ही मकान है.

चांदनी छिटकी पड़ी है , सफ़ेद वस्त्रों के लिए,
हमारे घर में तो अँधेरा ,सदा से विद्यमान है.

भूखे तड़पता देखकर , जूठा निवाला दे दिया,
रहम दिल वालों का, यह कितना बड़ा एहसान है.

हम चाहें निर्वस्त्र हो ,पर सूट उनको चाहिए,
क्योकि वे हीं राष्ट्र की, गौरव गरिमा शान हैं.

धर्म पालन पूर्ण कर ,ईश्वर की पूजा क्या करें,
जब हमारी किस्मतें, इनकी ही कद्रदान हैं.

हमारी माँ को वे बनाये दासी , या बहन को वे नचायें
चुपचाप सह लो खड़े होकर ,यह भी कोई अपमान है.

वे सभ्य हैं, शिक्षित भी हैं,शक्ति सामर्थ्य से भरे,
हम तो निरे मूर्ख पापी, उधम और नादान हैं.