Saturday, September 29, 2012

रस्मों-उल्फ़त के तरीके, रोज बदलते रहे

रस्मों-उल्फ़त के तरीके, रोज बदलते रहे,
एक हम हैं, जो सदैव, आग में जलते रहे।

क्या खबर थी इस कदर, रुसबा करेंगे वो,
ख्वाब जिनकी देखकर, हम नींद में चलते रहे।

कुछ भी नहीं बदल सके, इस घर-समाज का,
लहू जिगर में थामकर, हम व्यर्थ उबलते रहे।

ताक पर ईमान रख, सबकी तरक्की हो गई,
शर्म और लिहाज वश हम, हाथ ही मलते रहे।

 हर गली में द्रौपदी , बेआबरू होती रही,
कृष्ण तो बस मूर्तियों के, रूप में ढलते रहे।

वो हमें अब, जुर्म की, सजा सुनाते हैं,
जो रोज अपने जुर्म के, हिसाब निगलते रहे।

आदमी की क्या बिसात, कौन पूछेगा उसे,
पत्थरों के बीच जब, भगवान निकलते रहे।

Friday, September 14, 2012

आखिरी आरज़ू

इतने दिनों तक, तुमने,
कुछ भी नहीं कहा,
अकेले ही, तुमने,
कितना कुछ सहा,
अन्दर-ही-अन्दर,
थामे रहे, समंदर।
जबकि, तुम्हें तो खबर थी,
मैं थी, लाईलाज,
कुछ दिनों की, मोहताज।

नसों में दौड़ता, जहर,
कीमोथेरेपी का, असर,
कब तक मुझे बचाएगा?
चंद दिन, चंद हफ्तें,
फिर सब ख़त्म, हो जाएगा।
आँखों से बहता नीर,
यह क्षत-विक्षत, शरीर।
जिसके लिए, तुमने,
दाँव पर, लगा दी,
जीवनभर की कमाई,
मगर बदल न पाए,
किस्मत की, जुदाई।

सोचती हूँ मैं-
क्यों रही मैं, जिंदा,
महीनों तक अचल,
रुबरूँ होती रही,
प्रतिक्षण उस, मौत से,
जैसे अपनी सौत से।
जो मेरे इस, जिस्म को,
तुमसे अलग, कर देगी।
इस अभागी, देह का,
हर ज़ख्म भी, भर देगी।

मांगती हूँ मैं-
ले चलो, मुझे अब,
इस शहर से दूर,
जहाँ मैं, देख पाऊँ,
फिर से तुम्हारी आँखों में,
वही चमकता नूर।
कितना दर्द होगा,
मैं सब, सहन कर लूँगी,
पहनकर, तुम्हें साँसों में,
यह आँचल, भर लूँगी।
देखना! यह आरज़ू,
कुछ ऐसा, असर लाएगी।
जिंदगी की सांझ भी,
आँखों से उतर जाएगी।
है मुझे, इतना यकीं,
कुछ दिनों तक, हीं सही,
                    यह मौत, ठहर जाएगी....................