रस्मों-उल्फ़त के तरीके, रोज बदलते रहे,
एक हम हैं, जो सदैव, आग में जलते रहे।
क्या खबर थी इस कदर, रुसबा करेंगे वो,
ख्वाब जिनकी देखकर, हम नींद में चलते रहे।
कुछ भी नहीं बदल सके, इस घर-समाज का,
लहू जिगर में थामकर, हम व्यर्थ उबलते रहे।
ताक पर ईमान रख, सबकी तरक्की हो गई,
शर्म और लिहाज वश हम, हाथ ही मलते रहे।
हर गली में द्रौपदी , बेआबरू होती रही,
कृष्ण तो बस मूर्तियों के, रूप में ढलते रहे।
वो हमें अब, जुर्म की, सजा सुनाते हैं,
जो रोज अपने जुर्म के, हिसाब निगलते रहे।
आदमी की क्या बिसात, कौन पूछेगा उसे,
पत्थरों के बीच जब, भगवान निकलते रहे।
एक हम हैं, जो सदैव, आग में जलते रहे।
क्या खबर थी इस कदर, रुसबा करेंगे वो,
ख्वाब जिनकी देखकर, हम नींद में चलते रहे।
कुछ भी नहीं बदल सके, इस घर-समाज का,
लहू जिगर में थामकर, हम व्यर्थ उबलते रहे।
ताक पर ईमान रख, सबकी तरक्की हो गई,
शर्म और लिहाज वश हम, हाथ ही मलते रहे।
हर गली में द्रौपदी , बेआबरू होती रही,
कृष्ण तो बस मूर्तियों के, रूप में ढलते रहे।
वो हमें अब, जुर्म की, सजा सुनाते हैं,
जो रोज अपने जुर्म के, हिसाब निगलते रहे।
आदमी की क्या बिसात, कौन पूछेगा उसे,
पत्थरों के बीच जब, भगवान निकलते रहे।