Thursday, December 6, 2012

यशोधरा का प्रश्न

अब तो, आप बुद्ध हो,
जड़ा, व्याधि, मृत्यु,
तीनों से, मुक्त हो।
मगर, पुछती हूँ मैं,
यह जो,  संकल्प था,
क्या यही मात्र विकल्प था?
आत्म-बोध पाने का,
इस धरा को बचाने का।
साक्षी है इतिहास -
कृष्ण और राम ने,
स्वंय उस, भगवान ने,
इसी मर्यादित, जीवन में,
सत्य और पराक्रम से,
अपने आज को बदला।
धर्म और रिवाज को बदला।
सम्पूर्ण समाज, को बदला।

यह कैसा पुरुषार्थ है,
सन्यास लो, चल दो कहीं,
कर्तव्य क्या, कुछ भी नहीं।
वह प्रसव की पीड़ा,
जिसके आप, भागीदार थे।
पुत्र राहुल के लिए,
मैं अकेली-ही नहीं,
कुछ, आप जिम्मेदार थे।
फिर क्यों अकेले, मैंने ही,
झेला, यह वैधव्य,
हर रोज दी आहुति,
और, निभाती रही कर्तव्य।

हृदय जानता है -
आप मेरे, श्रिंगार थे,
इन प्राणों के, आधार थे।
चरणों की थी मैं दासी,
बस प्रेम की अभिलाषी।
आखिर दोष क्या था मेरा,
जो एक क्षण में छिन गया,
मुझसे मेरा, आधार।
अग्नि को साक्षी मानकर,
कभी स्वंय, आपने ही,
जो दिया था, अधिकार।

हो गई होती -
यशोधरा भी बुद्ध,
मगर उसके लिए तो,
हर मार्ग थे, अवरुद्ध।
कहाँ नारी को मिला,
उसका कभी व्यक्तित्व,
 उसके लिए तो, जीवन,
 का अर्थ था, दायित्व,
माथे पर था, पतित्व,
तन से लिपटा था सतीत्व,
                 और आँचल में, मातृत्व ................