Tuesday, June 12, 2012

सुसाइड-नोट


 माँ -
बहुत कोशिश की मैंने ,
इन आँसुओं को पीने की,
कुछ और , दिन जीने की।
इस अँधेरे , घर में,
जहाँ मेरा कुछ भी नहीं,
जहाँ मैं अभिशाप हूँ।
तुम्हारा कोई, पाप हूँ।
मगर मैं, अस्तित्वहीन ,
वेदना और दुख से क्षीण ,
आज भी, चुप-चाप हूँ।

यह मांग का सिंदूर,
जो सौभाग्य की निशानी है।
कैद मेरी आत्मा की,
अनकही, कहानी है।
जो कभी दुष्चक्र से,
निकल नहीं सकती।
मजबूर, अपने भाग्य को,
वह बदल नहीं सकती।
हर सुबह, जिसके लिए,
भेजती है, एक कफ़न,
रात की, खामोशियों में,
 रोज होती है दफ़न।

पूछूंगी विधाता से-
तुम तो सर्व-ज्ञाता थे,
सृष्टि के निर्माता थे,
फिर क्यों, बदल न पाए तुम,
निर्मम इस समाज को,
युगों की , रिवाज को,
सिसकती हुई आवाज को,
घूंघट में , दबी लाज को।
आखिर क्या थी लाचारी,
क्यों सदा, कटघरे में,
खड़ी रही है , नारी।
चाहे घर, किसी का हो,
पिता या, पति का हो,
रिश्तों के बोझ, के तले,
दबी रही बेचारी।

काश माँ ! मुझे भी वह,
आँचल नसीब होती,
अंतिम बार हीं सही ,
तुम बाँहों में भर लेती।
आखिरी लम्हें में पूरी,
जिंदगी जी लेती।
मगर अब इस आरज़ू को,
ह्रदय में सँजोती हूँ।
और तुमसे क्या कहूँ,
          बस आत्म-सात होती हूँ........

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