Friday, March 21, 2014

अनकहे जख्म

ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब यौन शोषण की घटनाएँ खबरों में नहीं आती। खबर पढ़कर हृदय ग्लानि और अपराध-बोध के दलदल में धँस जाता है। खुद से पूछता हूँ- यह यौन शोषण है क्या? अब आप कहेंगे- कैसा अनपढ़ और गवाँर हूँ। यौन शोषण का अर्थ तक नहीं समझता। तो मैं आपसे पूछता हूँ। क्या आप सही मायने में इसका उत्तर बता सकते हैं? मेरा तात्पर्य उस प्रश्न से ही जुड़ा है। आखिर यह शोषण हमेशा स्त्रियों के साथ ही क्यों होता है? क्या यह शारीरिक रूप से पीड़ादायी है या मानसिक रूप से भी? क्या यह केवल शारीरिक है या पूर्णतः मानसिक? अभी कुछ दिनों पहले की बात है। मैंने अपने एक मित्र से पूछा – समाज में यौन शोषण की असली वजह क्या है?’
मानसिक विकृति। उसने तुरंत उत्तर दिया।
कुछ लोग मानसिक रूप से बीमार हैं। उन्हें नैतिक-अनैतिक का पता ही नहीं चलता। ऐसे लोग ही इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं। उसने अपनी बात को और दृढ़ किया।
तो क्या ऐसी विकृति केवल पुरुषों में ही पायी जाती है? क्योंकि किसी स्त्री ने किसी पुरुष का यौन शोषण किया हो। ऐसा तो मैंने कभी नहीं सुना। यदि सुना भी होगा तो याद नहीं आता।“ मैंने उससे पुनः प्रश्न किया।
उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गई। फिर उसने कहा – 'ऐसी बात नहीं है। वस्तुतः हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है। पुरुष ताकतवर हैं। शक्ति और सामर्थ्य दोनों में ही। स्त्रियाँ इतनी सबल कहाँ हैं, जो ऐसी घटनाओं को अंजाम दें सकें। शायद यही कारण है कि पुरुषों द्वारा हीं यौन शोषण की घटनाएँ सामने आती हैं।'
'अच्छा ! यदि बात शक्ति की ही है तो यदि दस लड़कियाँ मिलकर तुम्हें जबरन पकड़ लें और तुम्हारे साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए, तो क्या वह यौन शोषण कहलाएगा?' मेरे ऐसा पुछते ही वह ज़ोर से हँस पड़ा।
“कैसी बातें करते हो तुम भी?’ शायद मेरा यह सवाल उसे अटपटा महसूस हुआ।
क्यों क्या बात हो गई? मैंने तो बस एक उदाहरण लिया था। मेरे ऐसा कहने पर वह थोड़ा गंभीर हुआ और फिर चुटकियाँ लेते हुए बोला- यौन शोषण तो कहलाएगा, मगर अखबार या न्यूज चैनल पर यह खबर नहीं बनेगी।
क्यों….’ मैंने पूछा। 
एक बार में ही मैंने इतने मजे ले लिए। फिर क्यों कोई शिकायत लिखवाने जाऊँगा?’ इतना कहते ही वह निकल पड़ा।
उसके इस उत्तर ने मुझे आकर्षित भी किया और प्रताड़ित भी। पुरुष प्रधान समाज के सबसे कड़वे  सच को, उसने कितनी सहजता से सामने रख दिया था। मैं उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा।
मन में खयाल आया- क्या शारीरक संबंध बनाने से महिलाएँ खुश नहीं होती? कैसे खुश होंगी? जन्म से लेकर मृत्यु तक वे अपने कौमार्य (virginity) की रक्षा में हीं लगी रहती हैं। शादी से पूर्व लड़कियाँ अपने कौमार्य को नष्ट होने से बचाने में लगी रहती हैं और शादी के बाद उस कौमार्य के एकाधिकार को सुरक्षित रखने में, क्योंकि अब उस पर अधिकार केवल उनके पति का होता है। ऐसे में किसी अन्य से संबंध बनाने का खयाल भी उन्हें अंदर तक झंकझोर देता है। चाहे उस संबंध से उन्हें नैसर्गिक सुख की अनुभूति हीं क्यों न हुई हो, मगर उन्हें अपनी आँखों के सामने समाज का वहीं क्रोधी और निर्दयी स्वरूप दिखाई देता है, जो या तो उन्हें सभ्यता से निष्काषित कर देगा या चरित्रहीन, पतिता अथवा वेश्या की संज्ञा दे देगा। और यह मानसिक पीड़ा इतनी प्रबल और भयानक होती है जो उनके जीवन को नर्क से भी बदतर बना देती है। मगर ऐसी कोई मानसिक पीड़ा पुरुषों के लिए, समाज में है हीं नहीं। वे तो पुनः अपने जीवन में बेहिचक लौट आते हैं। समाज उनकी भी निंदा करता है, मगर इस तरह उनकी उपेक्षा नहीं करता जैसे स्त्रियों के साथ की जाती है।
सृष्टि के आरंभ से ही स्त्रियों का यौन शोषण होता आया है। कोई भी युग हो या कोई भी काल। पुरुषों ने व्यक्तित्व का अधिकार, उन्हें कभी दिया ही नहीं। मैं उन सभी पुरुषों से पूछता हूँ और खुद को भी उसमें शामिल  करता हूँ कि जब हमने अपने ऊपर कौमार्य के लिए कोई बंधन नहीं बनाया तो फिर स्त्रियों पर ऐसा बंधन क्यों? केवल इसलिए क्योंकि उनका कौमार्य सिर्फ एक बार में ही नष्ट हो जाता है और हमारे लिए ऐसी कोई सीमा नहीं। वर्तमान परिदृश्य और अतीत में फर्क बस इतना है कि उस समय स्त्रियाँ लोक-लाज के भय से बिना कुछ व्यक्त किए, इस मानसिक पीड़ा को अपनी नियति मान लेती थीं और अब, कम-से-कम उनमें यह साहस तो उत्पन्न हुआ है कि वे घर से बाहर निकलती हैं। इस अमानवीय व्यवहार का विरोध करती हैं। मगर क्या वाकई उन्हें न्याय मिलता है? कानून न्याय दे भी दें तो क्या..... समाज उनके प्रति कोई न्याय करता है? न्याय तो उन्हें तब मिलेगा, जब हम यह समझे कि यौन शोषण मात्र एक अपराध, विकृति या कुचेष्टा भर नहीं है। यह एक प्रक्रिया है, जो सदियों से हमारे समाज में जन्मी हर स्त्री को आजीवन गुजरना होता है। चाहे वह वास्तव में किसी यौन शोषण का शिकार हुई हो या नहीं। यह हमारे पुरुष प्रधान समाज की ही उपज है और हमपर अभिमान इस कदर हावी है कि हम पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहते। अपने झूठे आदर्शों और सिद्धांतो को तोड़ना नहीं चाहते। परिणाम, यह कुंठा और अधिक विकसित और विस्तृत होती जा रही है। 
धीरे- धीरे मुझे धर्म और शास्त्रों में अरुचि सी होने लगी है। क्योंकि वहाँ मैं, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं पाता, जहाँ स्त्री को पुरुष के समांतर अधिकार दिये गए हों। जहाँ स्त्री को पुनर्विवाह का अवसर प्रदान किया गया हो। जहाँ उसकी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आर्थिक अधिकारों को पुरुष के समकक्ष बनाया गया हों। मैं एल्बर्ट आइन्स्टाइन को अपने आदर्श के रूप में देखता हूँ। भले ही उसका कारण - मेरी फिजिक्स सब्जेक्ट में रुचि हो। मगर उनके द्वारा दिया गया सिद्धान्त –
‘Nature always follows the simplest rule of Universe.’
जीवन में भी बिलकुल खड़ा उतरता है। पुरुष और स्त्री के बीच आकर्षण प्राकृतिक है। उनके बीच बना संबंध नैतिक भी है और आध्यात्मिक भी। बस आवश्यकता है कि हम स्त्री जाति को भी वे सारे अवसर दें, जो हमने स्वयं के लिए निश्चित किए हैं। उन्हें इस प्रकार की निर्जन यातना का शिकार न बनाएँ। उन्हें भी स्वेच्छा से अपने जीवन के मूल्यों को समझने और आत्मनिर्भर बनने का मौका दें। और अंत में उन सभी स्त्रियों से भी कहना चाहूँगा। यह शरीर आपका है। मन, हृदय, आत्मा आपकी है। इन पर सिर्फ आपका अधिकार है। ईश्वर ने जो भी अंग आपको प्रदान किए हैं, वह आपकी सुख-सुविधा के लिए है। किसी अन्य के लिए नहीं। इन्हें किसी सामाजिक बंधन में मत बाँधिए। यदि बाँधना ही है, तो इन्हें आत्मिक बंधन में बाँधिए, जिनपर अधिकार भी आपका हो और नियंत्रण भी।

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