Friday, March 29, 2013

लव....ब्रेकअप......जिंदगी.....

सुना था, इत्तिफ़ाक केवल फिल्मों और कहानियों तक ही सीमित होकर रह जाते है, मगर असल जिंदगी में यह, इस तरह आएगा, इसका मुझे आभास तक नहीं था।
ऑफिस से निकलकर मैं रोज वसंतविहार डिपो से घर के लिए बस पकड़ता था। वह शाम भी सामान्य दिनों की तरह थी। हल्की, बची-खुची धूप लिए उमस से भरी। दिन भर की थकान, दिल्ली की ट्रेफिक और डी॰टी॰सी॰ बसों की भीड़ तीनों मिलकर यमराज को भी जिंदा न रहने दे, फिर आदमी की क्या बिसात। पीछे के दरवाजे से चढ़कर मैं सामने की सीट पर बैठ गया। मैं तो खुशनसीब होता था जो डिपो से बैठता था, वरना लोग तो खड़े होकर ही पूरा सफर गुजार देते थे। यदि किसी को बीच सफर में सीट मिल जाती तो, वह लाख बार ईश्वर का धन्यवाद करता था। शुक्र है अब बसों में भी एयरकंडीशन की सुविधा है। भीड़ में भी कम-से-कम दम नहीं घुटता। सीट पर बैठते ही मैंने खुद को अगले डेढ़ घंटे के लिए निश्चिंत कर लिया, क्योंकि बस को घर पहुँचने में कम-से-कम दो घंटे तो लग ही जाते थे। अभी बस एक स्टॉप ही क्रॉस कर पायी थी और पूरी बस भर गयी। लोग दोनों सीटों के बीच में जो जगह होती थी, वहाँ खड़े हो जाते थे। खड़े क्या होते थे, यूं मानिए टंग जाते थे। बस की छत और फर्श के बीच में। उनके लिए सीट पर बैठा व्यक्ति स्वर्ग में बैठा प्रतीत होता था। खैर! मैं मजे में बैठा हल्की-हल्की उंघिया ले रहा था। तभी आगे से मुझे एक जानी-पहचानी लेडिज़ आवाज सुनाई दी।
'एक्सक्यूज मी। इट्स लेडिज़ सीट!'
मैंने अपने आगे खड़े हुये लोगों को थोड़ी जगह देने को कहा जिससे मैं उस लेडी को देख पाऊँ। देखकर मैं हैरान रह गया। श्रुति, इस तरह यहाँ। उसने ब्लू साड़ी पहन रखी थी। बालों में एक छोटा-सा क्लिप, जैसा वह अक्सर लगाया करती थी। वह लेडिज़ सीट थी। जहां तक मुझे समझ में आया, एक भद्र पुरुष अपनी बीवी के साथ बैठे थे। श्रुति के बोलते ही वे उठ खड़े हुए। नहीं तो कहीं-कहीं मैंने देखा है लोग तो नारी सशक्तिकरण तक का मामला खड़ा कर देते है। ऐसी- ऐसी दलीलें कि यदि पुरुष और नारी समान है और पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हैं तो फिर इस तरह का आरक्षण क्यों? मगर यहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने अपने आँचल को संभाला और सीट पर बैठ गयी। मैं तो इन सारी घटनाओं को समझ भी नहीं पा रहा था। कॉलेज पूरे हुए पाँच साल हो गए थे। और आज हम इस तरह बस में मिल रहे हैं। एक ही क्षण में हजारों स्मृतियों ने मुझे घेर लिया। मन हुआ, अभी जाकर उससे कुछ बात करूँ, मगर बस की भीड़ और फिर से सीट न मिल पाने पर खड़े-खड़े पूरे सफर गुजारने की भयावहता ने मुझे रोक लिया। मगर विचारों को मन में आने से कैसे रोकता और वह भी तब जब वह मेरी जिंदगी के सबसे हसीन पन्ने थे।
उसके साथ पहली बात, पहली मुलाक़ात सारे दृश्य एक साथ उभर आए। बहुत कम लोगों के साथ होता है कि आप लड़की से न कभी पर्सनली मिले हो न कुछ बात की हो और फिर भी आप उसे प्रोपोज कर दें। कुछ ऐसा ही तो हुआ था। हुआ यूं था कि हम चार-पाँच फ्रेंड्स बॉय्ज़ हॉस्टल में बैठे थे। जैसा अमूमन हर हॉस्टल में होता है। दो बातों पर हर कोई डिस्कस करता है- क्रिकेट और लड़कियां। ये दो टॉपिक तो ऐसे हैं, जिसमें हर कोई पी॰एच॰डी॰ होता है। घंटो बहस होती थी। आज कौन-सी लड़की ने कौन सा ड्रेस पहना? कल उसने क्या पहना था? फेसबूक पर उसके कितने फ्रेंड्स है? किस सीनियर के साथ किसका कनेकस्न है, वगैरह वगैरह। बात इतने पर नहीं रुकती थी।  कुछ लोग तो दावा कर देते थे के वे चलती हुई लड़की को दूर से ही स्कैन कर सकते हैं और उसका 'साइज' तक बता देते थे। हाँ ये बात अलग है कि वह साइज सही होता था या नहीं, इसके लिए तो उस लड़की से पूछना पड़ता। ऐसा किसी ने कभी नहीं किया। कम-से-कम इंजीनियरिंग कॉलेज में सीखे टैलंट का पता तो चलता। यदि कोई ऐसे डिबेट में भाग नहीं लेता था, तो लोग उसे मानसिक रूप से बीमार (mentally ill) घोषित कर देते थे। ऐसे भी कई बच्चे थे। मुझे तो तरस आता था, उनपर। शालीनता को किस तरह से कॉलेज में पागलपन से जोड़ दिया जाता है। जहाँ तक मेरी बात थी, मैं किसी भी ऐसे मुद्दे से न तो खुद को बिल्कुल अलग रखता था और न ही उल्टे-सीधे दावे पेश करता था। हाँ यह बात थी। मैंने कभी किसी लड़की को न ही छेड़ा था और न पागलों की तरह किसी के पीछे भागा करता था, जिसे व्यावहारिक भाषा में ‘लाईन मारना’ कहते हैं। इस मामले में मेरी अपनी राय थी। हमेशा लड़के ही लड़कियों के पीछे क्यों भागते हैं? जरूरत लड़कियों की भी है। दिल तो उनके सीने में भी धड़कता है, तो फिर बेकरारी का बोझ अकेले हम लड़के ही क्यों झेले? और सच कहूँ तो मुझे अभी तक ऐसी लड़की दिखी नहीं, जिसके लिए मैं बेकरारी के आलम को झेलने के लिए तैयार हो जाऊँ। वैसे भी मेकैनिकल ब्रांच में पहले से ही लड़कियों की इतनी shortage होती है। सत्तर बच्चों की क्लास में बारह या पंद्रह लड़कियां। यानि हर पाँच या छह लड़कों के हिस्से में एक लड़की। हाल कुछ वैसा ही होता है जैसे पाँच पांडवों के लिए एक द्रौपदी। पांडवों के बारे में तो सोचकर भी मुझे हैरानी होती है। आखिर उन्होने मैनेज कैसे किया होगा? द्रौपदी की स्थिति का तो अंदाजा भी लगाना मुश्किल है। क्या उस समय यौन रोग या एड्स जैसे समस्याएँ नहीं थी? उन्होने इसका कुछ-न-कुछ समाधान तो निकाला ही होगा। ऐसे भी बड़ा ही हाइटेक युग था वो। पल भर में वे क्या- क्या कमाल दिखा देते थे। मगर यहाँ तो किन पांडवों की द्रौपदी कौन है, इसका भी पता न था। यह ब्रांच के लड़कों के चेहरे की हताशा से साफ पता लग जाता। जब वे दूसरे ब्रांच जैसे C.S.,I.T. या E.C.E. के लड़के- लड़कियों को बातें करते देखते तो उन्हें कम्पलेक्स- सा हो जाता। बेचारे खुद को कोसते, क्यों इस ब्रांच में आए। मेहनत भी करो, सिलेबस भी सबसे ज्यादा और इंटरटेनमेंट के साधन, न तो क्लास में, न ही बाहर।
हम सब उस दिन भी कुछ ऐसे ही सामाजिक परिवर्तन और समानता की बात कर रहे थे कि लड़कियों के मामले में सबसे सही और उपयुक्त ब्रांच कौन है? किस कमरे की हवा में जादू है कि लड़कियां खींची चली आती हैं? जबकि ऐसा कुछ न था। अचानक मोहित ने मुझसे पूछ लिया।
'देव ! मैंने तुम्हें कभी किसी लड़की के पीछे भागते नहीं देखा।'
'अभी तक कोई पसंद नहीं आई।'
'ऐसे ही लोग अंगूर न मिलने पर उसे खट्टा बोल देते हैं। लड़की पटाने के लिए जिगर चाहिए।' उसने ताव देते हुये कहा।
'प्रोपोज करने में अच्छे- अच्छों की लग जाती है। गट्स होना चाहिए इसके लिए।' उसने रुककर कहा।
एक बात थी मुझमे। मैं अंतर्मुखी जरूर था और सामान्य तौर पर बहुत कम लोगों से ही बात-चीत करता था और लड़कियों से तो न के बराबर। मगर इसका यह मतलब नहीं के मैं हिचकता था या डर के मारे किसी से बात नहीं करता था। मेरा स्वभाव ही शायद ऐसा था। मगर बात जब गट्स की हो गयी। इसके लिए तो मैंने अब तक न जाने कितने टीचर और प्रोफेसर से पंगे ले लिए थे। तो फिर किसी लड़की से क्या डरना?
‘ऐसी बात है तो ! प्रोपोज मैं किसी भी लड़की को कर सकता हूँ।‘ मैंने निर्विकार भाव से बड़े ही विश्वास के साथ उत्तर दिया। कुछ देर के लिए हम चारों में चुप्पी छा गई। सभी को पता था कि रिस्क लेने से मैं कभी पीछे नहीं हटता था। बहुत से उदाहरण थे उनके पास।
‘तो चलो! आज यह भी देख लेते हैं। तुम्हें अभी चलकर किसी भी लड़की को प्रोपोज करना पड़ेगा। हम गर्ल्स हॉस्टल के सामने वाली कैंटीन पर जाएँगे। वहाँ जो भी लड़की मिलेगी, उसे प्रोपोज करना पड़ेगा।‘ मोहित ने जैसे अल्टिमेटम दे दिया।
पता नहीं ऐसे वाहियात और सरफिरे आइडियाज़ उसके दिमाग में क्लिक कैसे कर जाते थे और वह भी बिल्कुल एन वक्त पर। इन्हीं सब चक्करों में उसके प्वाइंटर्स पाँच और छह के बीच में झूल रहे थे। उसने तो न जाने कितनों पर ट्राई किया था, कितनों के पीछे भटका, मगर एक भी हाथ न आई थी। हालांकि मेरे प्वाइंटर्स भी उससे ज्यादा बेहतर नहीं थे। फिर भी मेरा सात से कुछ ऊपर था, जो प्लेसमेंट के लिए बहुत अच्छी तो नहीं पर ठीक मानी जाती थी। मगर वह तो कहीं नहीं था। प्लेसमेंट की नाव की अगर बात करें तो मैं उसमें कभी डूबता या उतरता, मगर उसकी नैया तो डूब चुकी थी। और जैसा कि अक्सर होता है, ऐसे समय डूबने वालें लोग खुद को मोती ढुढ़कर लाने वाला समझ लेते है। डुबना गोते लगाने में परिवर्तित हो जाता है। और जवाब कुछ इस तरह का होता है, जो मोहित अक्सर दिया करता था- ‘ मुझे तो C.A.T. की तैयारी करनी है। इंजीनयरिंग में रखा क्या है? इतने लंबे-लंबे इक्वेशन, जो कहाँ से शुरू होते हैं और कहाँ खत्म। इसका भी पता नहीं चलता। प्रोफेसर्स को तो खुद, कुछ भी याद नहीं होता। सबने अपनी एक नोट्स बना ली है। पेपर लेकर आना और पूरी क्लास को छपवा देना। एक भी लाइन, बिना देखे नहीं लिख सकते। यदि कोई उनसे पूछ ले या उनका एक्जाम लिया जाए, सारे फेल हो जाएँगे, उसी सबजेक्ट में, जो वे हमें पढ़ाते हैं। कुछ लोगों ने तो अपने सबजेक्ट्स की पूरी फिल्म ही बना रखी है। आते हैं, और पूरी फिल्म पावर प्वाइंट पर दिखा देते है। डिस्कवरी चैनल की तरह कुछ अजीबो-गरीब चीजें प्रकट होती है, जिनके नीचे पैशाचिक फोर्मूले होते हैं, जिन्हें लिखने में नोटबूक की कई लाईने लग जाए। अभी हम लिख ही रहे होते हैं कि तभी वे अदृश्य हो जाते हैं। और फिर प्रोफेसर की आवाज गूँजती है- ‘It is important for your internals as well as semester exams.’ बचचें भी इतने होशियार कि एक बार में ही समझ जाते हैं। क्योंकि जब प्रोफेसर्स पुछते हैं- “any doubt”.कोई उठकर नहीं बोलता कि नहीं समझ आया। जबकि यह बात उस लेक्चरार को भी मालूम होती है कि किसी ने कुछ भी नहीं समझा। कुछ प्रोफेसर्स, जो खुद को विद्वान या शिरोमणि समझते हैं, वे दुबारा भी पूछ लेते हैं- ‘any doubt please.’ और जब पूरी क्लास में चुप्पी छा जाती है तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। मानो आज उन्होने कृष्ण को भी पछाड़ दिया हो और गीता से भी ज्यादा रहस्यमयी ज्ञान का प्रसाद बाँट दिया हो। मैं पूछता हूँ ऐसे फालतू और बोरिंग इक्वेशन्स को याद करने की जरूरत क्या है? याद करने के बाद इंडस्ट्री या कंपनी में काम तो मैनेजर का ही करना होता है। पता नहीं ये लोग पिछले सौ सालों से उसी सिलेबस को क्यों दोहरा रहे हैं? जो हमें सीखनी चाहिए, वो तो सिखाते नहीं, बस रट्टा मारने वाली मशीन बनाकर हमें छोड़ देंगे? जिसने जितनी ज्यादा मेहनत की है रटने में, उसके उतने ही ज्यादा प्वाइंटर्स। मैं पूछता हूँ, जिनके नौ या दस प्वाइंटर्स है, उन्होने क्या नया सीख लिया है? अभी उनसे फर्स्ट सेमेस्टर का कुछ पूछ्कर देखो। सारा टैलंट पता लग जाएगा। ऐसे एक्जाम टाईम में निगलकर और उसे पेपर में उगलने का क्या फायदा?’ इस तरह के न-जाने कितने-ही तर्क और दलीलें वह पेश किया करता था। मगर मेरे लिए मुद्दा अभी उन सभी बातों को याद करने का नहीं था। मुझे नहीं आभास था कि वह ऐसी कोई शर्त, अभी-के-अभी रख देगा। कहने में तो बड़ा आसान लगता है, मगर प्रोपोज करना ! मैंने तो इसके बारे कभी कुछ सोचा तक नहीं था। फिर भी खुद को नियंत्रित रखकर मैंने घड़ी की ओर देखा।
‘ शाम के सात बज रहे हैं। गर्ल्स हॉस्टल तो अब तक बंद हो जाता है।‘
‘तो क्या हुआ। यह हमारा काम है। और ऐसे भी अभी सात- आठ मिनट रह रहे हैं। देखते हैं हमारी किस्मत क्या रंग लाती है?’ उसने चहकते हुये कहा।
किस्मत क्या रंग लाती। मुझे तो इस पूरी घटना का भविष्य अंधकारमय दिख रहा था। आज तक मैंने किसी लड़की के ऊपर कोई कमेन्ट भी पास नहीं किया था और आज अचानक प्रोपोज और उसपर मुझे यह भी नहीं मालूम वह लड़की कौन होगी? कहीं सीनियर निकल आई तो! कैसे- कैसे खयाल जेहन में उमड़ने लगे। फिर मैंने सोचा। अभी कोई लड़की कैंटीन पर मिलेगी ही नहीं। तो बेकार में क्यों डरना? चलकर आज इनकी यह तमन्ना भी पूरी कर देते हैं। इन्हें भी तो पता चले कि देव केवल डींगे नहीं हाँकता, बल्कि उसे पूरा भी करता है। यह मेरे व्यक्तित्व की खासियत भी थी। मैंने शर्त मंजूर कर ली और हम चारों- मैं, मोहित, वैभव और दिनेश हॉस्टल से कैंटीन की तरफ निकल पड़े। एक अबूझ पहेली को समझने, जबकि हमें तो पहेली का भी पता न था।
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Sunday, March 24, 2013

समर्पण


दिन-भर की थकन से,
जब लौटते हो घर,
और, भर लेते हो बाँहों में,
मुझे, अपनी पनाहों में।
उस पसीने की खुशबू से,
महकती हूँ मैं।
तुम्हारा, तर-बतर भींगा बदन,
आगोश में, न जाने क्यों,
दमकती हूँ मैं।

यह पूनम की रात,
और तुम्हारा स्पर्श।
माथे पर चाँद,
और, आँखों में हर्ष।
स्वप्नों की बाती,
और, जुगनू के दिये,
दोनों मदहोश,
तो क्योंकर, कुछ पिए।

मेरे कपोलों पर,
तुमहारें अधरों का निशान।
माथे पर चमकती,
वह सिन्दूर की शान।
जो देती है, मेरे,
अस्तित्व को पहचान।
यह होली-दिवाली,
तुम्हीं से तो है।
यह रस्मों की लाली,
तुम्हीं से तो है।
स्वप्नों के देवता तुम,
और मैं, तुम्हारी दर्पण।
यह अरुणिमा, यह मधुरिमा,
सर्वस्व, तूम पर अर्पण।
कुछ ऐसा है -
मेरा- तुम्हारा समर्पण...........

Wednesday, March 13, 2013

विरह- व्यथा

सप्तवेणी, इस धरा पर,
शरद का, यह चंद्रमा,
स्वर्ण, नूतन रश्मियों से,
रात को सजाता है।
और मेरा, उर पिपासु,
दृग में भरकर प्रेम आँसू,
अश्रु- जल बहाता है।

क्यों वह ऊष्मा न रही,
हम दोनों के संबंध में,
उस प्रीत के सौगंध में,
युग वहीं ठहर गया,
खामोश हीं गुजर गया।
वक्त के जिस मोड़ पर,
संबंध सारे तोड़ कर,
हम जहाँ अलग हुए,
आज भी उस मोड़ से,
अतीत के उस छोर से,
कोई मुझे, बुलाता है।
अश्रु- जल बहाता है।

यह कैसा अंतर्द्वंद है,
गंगा का, अपने नीर से,
इस रूह का, शरीर से।
पुछती है, हर घड़ी,
निस्तब्धता की वेदना,
और यह, व्यथित हृदय,
नैराश्य में, डूबा हुआ,
क्षीण और ऊबा हुआ,
स्मृति के मुहाने पर,
अनायास, चला जाता है।
अश्रु- जल बहाता है।  

Sunday, March 10, 2013

वो कहते हैं कि बदल रहा हूँ मैं

वो कहते हैं, कि, बदल रहा हूँ मैं।
फिर क्यों, सुपुर्दे-खाक में भी, जल रहा हूँ मैं।

सच सुनाने का सिला, लोगो ने यूं दिया,
क्यों, व्यर्थ के सवाल पर, उबल रहा हूँ मैं।

आज मेरे साये से भी, कतराते हैं वो,
दामने जिनका सितारा, कल रहा हूँ मैं।

बदनसीबी ने मुझे, मुकर्रर कर दिया,
कभी हसीन लम्हों का, गजल रहा हूँ मैं।

सियासतों की जंग ने, कुछ इस कदर लूटा मुझे,
कि वक्त के मरहम तले, सम्भल रहा हूँ मैं।

सुना है कि मौत भी, महबूब जैसी है,
इसी तजुर्बे के लिए, मचल रहा हूँ मैं।

Saturday, March 9, 2013

फिर नील गगन अपना होगा

प्रिय ! तुम्हारी आँखों के,
इन अश्रु की सौगंध मुझे,
रोक नहीं, अब पाएगा,
इस जीवन का, तट-बंध मुझे।
हो प्रेम, हमारा इस जग में,
या पार, अलौकिक उस जग में।
उस परम पिता, परमेश्वर को,
एक विश्व नया, रचना होगा।
फिर नील गगन अपना होगा।  

तुम मेरी प्राण-सुधा सुभगे,
मैं अमृत, तुम्हरे अधरों का।
हम दोनों के इस जीवन पर,
अधिकार नहीं, इन बधिरों का।
जो इस समाज के ज्ञाता हैं,
और रस्मों के निर्माता हैं।
अंगारों पर, चलकर ही,
हमें कुन्दन, बन तपना होगा।
फिर नील गगन अपना होगा।  

इस पथ पर, चाहे मृत्यु हो,
या तम से, घिरा हुआ जीवन।
अब जीवन की परवाह किसे,
सर्वस्व किया, तुझको अर्पण।
जब शव, दोनों के निकलेंगे,
आजाद परिंदे, हम होंगे।
हर धड़कन, प्रीतम झूमेगी,
तब पूरा यह सपना होगा,
फिर नील गगन अपना होगा।