Wednesday, December 18, 2013

पत्थर यूग

ऐसा नहीं हैं कि ,
अब हम, लिपटते नहीं।
एक-दूसरे की बाँहों में,
आकर, सिमटते नहीं।

मगर, अब यह,
एक प्रक्रिया भर है,
जो चंद पलों में हीं,
गुजर जाती है।
फिर वही निस्तब्धता -
हम दोनों के बीच,
ठहर जाती है।

तुम्हारा खुला बदन,
वह रेशमी आगोश।
फिर भींगती थी रात,
और डूबते थे होश।
जिस्म अब भी वही है,
मगर यह, बहकता नहीं।
साँसों की सुगंध से,
अब यह, महकता नहीं।
मिलते हैं होंठ, मगर -
उन्हें, नमी नहीं मिलती।
बोसों की बारिश को,
जमीं नहीं मिलती।

शायद इन्हें भी खबर है कि
एक ही कमरे में,
एक ही बिस्तर पर,
अब हम, "हम" नहीं रहे।
रह गयी हो, केवल तुम,
या रह गया हूँ, केवल मैं ..............

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